SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 51
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रस्तुत कृति के प्रारम्भ में सुन्दर समाधान दिया है.---'बहुत विद्वानों ने आचार्य कुन्दकुन्द को निश्चयनय की सीमा में आबद्ध करने का प्रयत्न किया है। उनका दृष्टिकोण संकुचित है, यह कहना मैं नहीं चाहता, किन्तु अनेकान्त की सीमा का अतिक्रमण कर रहा है, यह कहने में मुझे कोई कठिनाई नहीं होती। आचार्य कुन्दकुन्द ने निश्चय और व्यवहार दोनों नयों को उनकी अपनी-अपनी सीमा में अवकाश दिया है। केवल सूक्ष्म पर्याय ही सत्य नहीं है, स्थूल पर्याय भी सत्य है । हमारा व्यवहार स्थूल पर्यायों के आधार पर आकलित होता है। क्या सत्य के एक पहलू को नकार कर असत्य को निमन्त्रण नहीं दिया जा रहा है?' इसी प्रकार विवादस्थ "पुण्य" के विषय में भी लेखक ने अच्छा प्रकाश डाला है। वस्तुतः यह कृति विवादग्रस्त विषयों पर हृदयग्राह्य विवेचन करने वाली अपने ढंग की पहली कृति है। पुस्तक का मुख पृष्ठ, कागज, छपाई-सफाई और पक्की जिल्द आदि सभी नयनाभिराम एवं हृदयहारी हैं । ऐसे सुन्दर प्रकाशन के लिए लेखक, सम्पादक एवं प्रकाशक तीनों ही संश्लाघ्य हैं। --अमृतलाल शास्त्री ३. नवतत्त्व : आधुनिक सन्दर्भ-प्रथम संस्करण, १९६१, मूल्य-५/- रु०, पृष्ठ संख्या-५७ । लेखक-युवाचार्य महाप्रज्ञ । प्रकाशक-जैन विश्व भारती, लार ३४१३०६ (राजस्थान)। जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष-इन नव तस्वों के नाम स्वाध्याय करने वाले जैन-जैनेतर सभी मनीषी मानते हैं। शताधिक बृहत्काय प्राकृत-संस्कृत ग्रन्थों में इनका विस्तृत गहन विवेचन किया गया है। पर आधुनिक व्यस्त युग के जिज्ञासु पाठक थोड़े समय में उस (गहन विवेचन) से लाभ नहीं उठा पाते। ऐसे पाठक केवल उसके नवनीत को ग्रहण करना चाहते हैं। संभवत: इसीलिये प्रस्तुत पुस्तक की रचना की गई है । कलेवर में छोटी है पर नवतत्त्वों का विवेचन प्रसङ्गतः आईस्टीन, कांट, डेकार्ड, फ्रायड एवं युग आदि पाश्चात्य दार्शनिकों की मान्यता तथा उनके समालोच्य अभिमतों की समीक्षा, आयुर्वेदिक ग्रन्थों के अवतरण और यत्र-तत्र अनेक उदाहरण दे-देकर किया गया है, जिससे यह कृति 'गागर में सागर' उक्ति को चरितार्थ करती है। -अमृतलाल शास्त्री ४. चित्त और मन : प्रथम संस्करण १९६० । मूल्य-३०/- रु०, पृष्ठ-३५६, लेखक-युवाचार्य महाप्रज्ञ । प्रकाशक-तुलसी अध्यात्म नीडम्, जैन विश्व भारती, लाडनूं-३४१३०६ (राजस्थान)। ___'चित्त और मन' युवाचार्य महाप्रज्ञ के सन्त हृदय से निःसृत अनुपमेय पुस्तक है जिसे मनोविज्ञान और दर्शनशास्त्र तथा फीजियोलोजी के अन्तर्गत मान सकते हैं। इस पुस्तक में मन और चित्त का सूक्ष्म, सरल एवं बोधगम्य विश्लेषण हुआ है। चित्त और मन को खण्ड १७, अंक २ (जुलाई-सितम्बर, ६१) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524567
Book TitleTulsi Prajna 1991 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1991
Total Pages96
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy