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________________ पं० यशःकीत्ति की पादुका युगल स्थापित करने का सं० १२०१ ज्येष्ठ सुदि १० शनिवार को लिखा लेख उपलब्ध है । अत: यह संभावना सही प्रतीत होती है कि राजा यशोभद्र श्री दत्तसूरि शिष्य होने के साथ-साथ माथुर संघ के आचार्य अनन्तकीति का भी शिष्य रहा होगा और खंडिल्ल ( लाडनूं) और डिडूवाणक (डीडवाणा) उस समय जैन तीर्थ रूप में सर्वमान्य रहे होंगे । दुर्भाग्य से डीडवाणा की पुरातत्त्व-संपदा का कोई अध्ययन नहीं हुआ । प्रस्तुत ग्रंथ में भी जहां आधे से अधिक व्यक्ति चित्र छापे गए हैं वहां उपलब्ध शिलालेख आदि में केवल दो अस्पष्ट (त्रुटित) लेखों के ब्लॉक दिए हैं । ( एक ब्लॉक में – "जयूवर गते । तस्यै- /- सुय हत- सह - / सिंह - / गत-/-हुत " आदि अस्पष्ट अक्षर दीख पड़ते हैं) जबकि इसी उपलब्ध लेखादि के पुरातत्त्व से डीडवाणा का इतिवृत्त खोजा जा सकता है । १६वीं - २०वीं सदी में डीडवाना में बहुमुखी प्रगति हुई। उसका एक चित्र प्रस्तुत ग्रंथ में स्पष्ट दीख पड़ता है । संपादक मण्डल के सदस्यों ने वस्तुतः इस ग्रंथ को 'मरुधरा का वैभव' - रूप में प्रस्तुत करने का सदुयोग किया है । 'संस्कृति - संगम, डीडवाना' इस ग्रंथ के प्रकाशन से पूर्व भी कई प्रकाशन कर चुका है जो चर्चित और प्रशंसित हुए हैं। ग्रंथ की प्रस्तुति और संपादन में काफी मेहनत की गई है । ग्रन्थालय और शिक्षायों के लिए यह शोध - संदर्भ का खजाना सिद्ध होगा --- इसमें कोई संदेह नहीं । आशा है, संस्कृति -संगम अपनी यात्रा जारी रखेगा । - परमेश्वर सोलंकी २. समयसार : निश्चय और व्यवहार की यात्रा -- -- प्रथम संस्करण : १६६१, मूल्य- २५/- रुपये, पृष्ठ संख्या - १६५ । लेखक - युवाचार्य महाप्रज्ञ । प्रकाशक - जैन विश्व भारती, लाडनूं- ३४१३०६ ( राजस्थान ) । आचार्य कुन्दकुन्द के द्वारा शौरसेनी प्राकृत में समयसार, प्रवचनसार, नियमसार, पञ्चास्तिकाय और अनेक पाहुड़ों (प्राभृतों) की रचना की गयी जो सौभाग्यवश संपादित होकर अनेक टीकाओं के साथ प्रकाशित भी हो चुके हैं । प्रस्तुत पुस्तक आदि से अन्त तक अत्यन्त सरल एवं परिष्कृत हिन्दी में आधुनिक पद्धति से लिखी गयी है । सभी वर्गों के पाठक इसे आसानी से समझ सकेंगे । इस पुस्तक की प्रस्तुति में लिखा है- 'समयसार अध्यात्म का प्रतिनिधि ग्रन्थ है । विश्व साहित्य के अध्यात्म विषयक जो ग्रन्थ हैं, उनमें यह प्रथम पंक्ति के ग्रंथों में से एक है ।' इस महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ में समयसार की समस्त गाथाओं की व्याख्या नहीं की गयी है, किन्तु हृदयग्राह्य कुछ चुनी हुई गाथाओं का मर्म उद्घाटित किया गया है, जो अक्षरश: पठनीय है । कुछ वर्ष पूर्व दि० जैन समाज में आचार्य कुन्दकुन्द के निश्चयनय को लेकर दो पार्टियां तैयार हो गयी थीं। एक का कहना था कि निश्चय ही मान्य है, व्यवहारनय मान्य नहीं है । दूसरी पार्टी का कहना था कि निश्चयनय के साथ व्यवहारनय को भी मानना चाहिए; क्योंकि निरपेक्षनय मिथ्या माने गए हैं। इस विषय को लक्ष्य बनाकर तुलसी प्रज्ञा ܘܘܐ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524567
Book TitleTulsi Prajna 1991 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1991
Total Pages96
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size5 MB
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