SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 34
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ वर्णन किया गया है, सर्वत्र अरहा, अर्हन् अर्हन्त, अरिहन्त आदि विशेषणों सहित ही वर्णन किया गया है । अंग, उपांग, प्रकीर्णक, अन्य आनुषंगिक ग्रंथों में भी इसी प्रकार का वर्णन है । आचाराङ्ग, सूयगडाङ्ग, ठाणाङ्ग, भगवती आदि अंग आगमों में प्रचुर मात्रा में उल्लेख दृष्टिगत होता है। इसी का अनुकरण उपांग आदि ४५ आगम ग्रंथों एवं अन्य सभी ग्रंथों में हुआ है। आधुनिक काल में व्यवहार से सामान्य केवली को भी अहंत कह दिया गया है, किन्तु किसी भी आगम ग्रंथ में तथा आनुषंगिक ग्रंथ में एक भी प्रमाण दृष्टिपथ पर नहीं आता । गणधरों में किसी को भी अर्हन्त पद से आगम-ग्रंथों में विभूषित नहीं किया गया। भगवान् महावीर के पट्टधर सुधर्मा स्वामी की यशोगाथा से ही सर्व आगम ग्रंथों का प्रणयन तथा प्रारंभ होने पर भी किसी ने भी अहंन्त पद से उनको अलंकृत नहीं किया है। हो सकता है आगम ग्रंथों को स्वयं गणधरों ने शब्दों की श्रृंखला में निबद्ध किया है, अतः स्वयं को अहंत पद न लगाया हो। अन्तिम केवली जम्बूस्वामी को भी इस पद से अलंकृत नहीं किया गया । अंतगड़दशाङ्ग में अन्तकृत् (उसी समय केवलज्ञान होकर निर्वाण हो जाना) केवलियों का ही वर्णन मिलता है, उसमें भी किसी भी केवली भगवन्त को इस पद से सुशोभित नहीं किया गया। इस अवसर्पिणी में प्रथम केवली मरुदेवी माता हुई, उनको भी अहंत पद नहीं लगाया गया। ___सैद्धान्तिक अपेक्षा से अहंत पद मात्र तीर्थङ्कर के साथ ही ग्राह्य हुआ है । चौंतीस अतिशय', बारह गुण, वाणी के पैतीस अतिशय', इनमें अहंत पद में तीर्थंकर प्रभु की महिमा का ही गुणगान हुआ है। अष्ट प्रातिहार्य', समवसरण की रचना, सुवर्ण कमलों पर पद न्यास, च्यवन के समय माता को दिव्य स्वप्न-दर्शन', जन्म के ६ मास पूर्व ही देवों द्वारा रत्नों तथा सौनयों का वर्षण, जन्मावसर पर इन्द्र का आसन चलायमान होना, छप्पन दिक्कुमारिकाओं द्वारा सूति कर्म करना, जन्माभिषेक हेतु शकेन्द्र का विकुर्वण द्वारा पंच रूपों में मेरु गिरि पर ले जाकर क्षीरोदक से १००८-१००८ सुवर्ण, रत्न, मृत्तिका आदि कलशों द्वारा अभिषेक करना । दीक्षा के अवसर पर लोकान्तिक देवों द्वारा विनम्र प्रार्थना, महाभिनिष्क्रमण से पूर्व एक वर्ष तक संवत्सर दान (वर्षीदान) आदि आदि अनेक गाथाएं तीर्थङ्कर प्रभु के यशोगान से जुड़ी हुई हैं, जबकि सामान्य केवली के साथ ऐसा एक भी प्रसंग' नहीं होता। इससे यही ज्ञात होता है कि अहंत पद को तीर्थ ङ्कर मात्र के लिए ही उपयोग करना चाहिए। फिर किस अपेक्षा से केवली को अहंत कहा गया है, उस पर भी हम दृष्टिपात करें । भगवती सूत्र का प्रारंभ नमस्कार महामंत्र के मंगल से हुआ है । नमस्कार महामंत्र १. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश भाग-२ पृ० १५५ [ज्ञानपीठ-संस्करण] २. आव० चूणि-पत्र १८१ ३. समबायाङ्ग ३४.१; भगवती. ६.३३ ४. ज्ञाताधर्मकथाङ्ग-८, भगवती १२. ८, विशेषावश्यक ३०४६, ५. समवायाङ्ग ३५.१। ६. भग. वृत्ति १. १., आव० चू. १८२ । ७. नायाधम्मकहाओ. १.१.२६, अंतगड़- ३. ८, जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति, पंचम वक्ष । ८. आव. चणि पत्र. १३६-१५७. नाया. ८। ८४ तुलसी प्रज्ञा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524567
Book TitleTulsi Prajna 1991 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1991
Total Pages96
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy