SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 33
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ क्या सामान्य केवली के लिए अर्हन्त पद उपयुक्त है ? साध्वी डॉ० सुरेखाश्री जैन दर्शन के अनुसार व्यक्ति अपने कर्मों का विनाश करके स्वयं परमात्मा बन जाता है। परमात्मा की अवस्थाएं हैं-शरीर सहित जीवन्मुक्त अवस्था और दूसरी शरीर रहित देह-मुक्त अवस्था। पहली अवस्था अर्हन्त तथा दूसरी अवस्था सिद्ध कही जाती है । अर्हन्त भी दो प्रकार के हैं-१. तीर्थङ्कर २. सामान्य । विशेष पुण्य सहित अहंत, जिनके कि कल्याणक महोत्सव सुर-नर-इन्द्रादि द्वारा मनाये जाते हैं तथा पूर्व गत तीसरे भव में जिन नाम कर्म का बंध किया हो वे तीर्थङ्कर कहलाते हैं। शेष अन्य सभी जिन्होंने कर्म क्षय किया हो, वे सामान्य अहंत कहलाते हैं । घाति कर्मों का क्षय करके केवलज्ञान अर्थात् सर्वज्ञत्व से युक्त होने के कारण इन्हें केवली भी कहते हैं । तीर्थकर तथा सामान्य केवली दोनों के अष्ट कर्मों के विभाजित भेद, घाति तथा अघाति कर्मों में से घाति कर्मों के क्षय हो जाने के पश्चात् केवलज्ञान उत्पन्न होता है। ज्ञान की अपेक्षा दोनों ही समान कोटि में आते हैं तथापि तीर्थङ्करों के जिन नाम कर्म का बंध होने से विशेष महिमा होती है, उनके कल्याणक महोत्सव इन्द्र देव और मनुष्यों द्वारा मनाये जाते हैं। यहां तक कि उनके जन्म के समय सर्व लोक में उद्योत होता है तथा प्राणिमात्र को अपूर्व सुखानुभूति होती है । तीर्थङ्कर तथा केवली दोनों की ज्ञान-सीमा तुल्य होने पर भी तीर्थङ्कर को अर्हन्त कहा जाता है । आगमों में इसका प्रमाण सर्वत्र दृष्टिगोचर होता है । चतुर्विशतिस्तव अर्थात् 'लोमस्स सूत्र' में इसका स्पष्टतया उल्लेख है लोगस्स उज्जोअगरे धम्मतित्थयरे जिणे।। अरहते कित्तइस्सं चइवीसंपि केवली ॥' यहां स्पष्टतया चौबीस तीर्थङ्करों को जिन, केवली तथा अर्हन्त कहा गया है। इसी प्रकार 'शक्रस्तव' अथवा 'णमुत्थुणं सूत्र' में भी इसी भाव को पुनः स्पष्ट किया है णमुत्थुणं अरहताणं भगवन्ताणं । आइगराणं तित्थयराणं । -~-~जो धर्म का आदि करते वाले तीर्थङ्कर भगवन्त है, ऐसे अर्हन्तों को नमस्कार हो । इसके अतिरिक्त आगमों में जहां तहां भी तीर्थङ्कर भगवान् का किंचिन्मात्र भी १. आवश्यक चूणि पृ० १३५, पन्नवणा २३ । २. आव. सूत्र मध्य. २। ३. भगवती सूत्र-१.१,२.१,३.१, औप. ८७, कल्प सूत्र पृ० ३ खण्ड १७, अंक २ (जुलाई-सितम्बर, ६१) ३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524567
Book TitleTulsi Prajna 1991 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1991
Total Pages96
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy