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________________ प्रामाण्य की परिभाषा की कि ज्ञानग्राहक सामग्रीग्राह्यत्वं स्वतः प्रामाण्यम् । यह तृतीय पक्ष है जो सभी मीमांसकों को मान्य है। नैयायिक इस पक्ष में यह आपत्ति करते हैं निखिल प्रमाणगत प्रामाण्य यदि सामान्य की भांति जाति रूप हैं तब तो वह नित्य हो जाता है और नित्य वस्तु की उत्पत्ति नहीं होती है। ऐसी स्थिति में ज्ञानग्राहकसामग्री से प्रामाण्य उत्पन्न होता है यह कहना ठीक नहीं है। - यदि प्रामाण्य को जाति न मानकर उपाधि माना जाय तो भी उसकी उत्पत्ति संभव नहीं है क्योंकि प्रामाण्य यथार्थानुभवत्व रूप है । स्मृति भिन्न ज्ञान हि यथार्थानुभव कहा जाता है । अनुभव की यथर्थता बाधात्यन्ताभाव रूप ही है । जो ज्ञान उत्तरकाल में बाधित हो जाय वह यथार्थ ज्ञान नही कहा जा सकता। इस प्रकार प्रामाण्य बाधात्यन्ताभाव रूप सिद्ध होता है और अत्यन्ताभाव नित्य माना गया है । ऐसी स्थिति प्रामाण्य की उत्पत्ति कथमपि संभव नहीं हैं। मीमांसक इसका उत्तर देते हुए कहते हैं कि यह कथन सर्वथा अर्थहीन है कि स्वत: प्रामाण्य का स्वरूप नहीं बनता है, इसलिये ज्ञान का प्रामाण्य परत: मानना चाहिये । यह बात इसलिये निराधार है कि ज्ञान का प्रामाण्य स्वतः उपपन्न हो रहा हैं। प्रामाण्य का स्वतोग्राह्यत्व यही है कि वह ज्ञान की सामग्री मात्र से ही जन्य है उससे भिन्न किसी हेतु से जन्य नहीं है । "ज्ञानसामग्रीजन्यत्वे सति तदितराजन्यत्वमेव स्वतो ग्राह्यत्वम्" जिस सामग्री से ज्ञान उत्पन्न होता है उसी से उसका प्रामाण्य भी उत्पन्न होता है। गुण या दोषाभाव उसके प्रयोजक नहीं है। दोष तो केवल प्रमा का प्रतिबन्धक है। - यह प्रामाण्य और अप्रामाण्य का विचार अनित्य अर्थात जन्य ज्ञान के सम्बन्ध में होता है। नित्य ज्ञान जो सबका मूल है उनके सम्बन्ध में यह विचार नहीं होता । विषयेन्द्रिय सम्प्रयोग जन्य अनिन्य ज्ञान अन्तः करण वृत्ति रूप है । यह भी ज्ञान तभी बनता है जब इसमें नित्यबोध का प्रतिबिम्ब पड़ता है । यह नित्य बोध का द्वार है। इसके द्वारा ही नित्य अखण्डबोध या भग्नावरणा चित् की उपलब्धि होती है जिससे जड़चेतनग्रन्थिविभेदनपुरः सर सर्वसंशयनिराकरणसमानाधिकरण निखिलकर्मो का सार्वदिक क्षय होता है जिसे मुक्ति या स्वरूपोपलब्धि शब्द से अभिहित किया जाता है। - - स्वतः प्रमाणं परतः प्रमाण कीरांगना यत्र गिरो गिरन्ति । शिष्योपशिष्यरुपगीयमानमवेहि तन्मण्डनमिश्रधाम । तुलसी प्रज्ञा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524567
Book TitleTulsi Prajna 1991 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1991
Total Pages96
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size5 MB
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