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________________ भी है । यदि उत्पादक सामग्री और ग्राहक सामग्री भिन्न-भिन्न हो जाय तो एक कालावच्छेदेन उनका सन्निधान संभव न होने की स्थिति में ज्ञान उत्पन्न होकर भी अज्ञात ही रहेगा। ऐसी स्थिति में ज्ञान की स्वप्रकाशकता समाप्त ही हो जायेगी। इसलिए ज्ञानोत्पादक सामग्री ही ज्ञान ग्राहक सामग्री है ऐसा मानना अनिवार्य हो जाता है। घट ज्ञान के बाद "अयंघट:'' ऐसा ज्ञान न होकर इस मत में "घटमहं जानामि" इस प्रकार का भान होता है। इस भान में घट, घटज्ञान ओर ज्ञाता इन तीनों की अनुभूति होती है। इस प्रकार ज्ञान की उत्पादक सामग्री ही ज्ञान की ग्राहक सामग्री भी है और वही सामग्री ज्ञान के प्रामाण्य का भी ग्रहण करती है । इसलिये “घटमहं जानामि' की भांति “घटमहं प्रमिणोमि" इस वाक्य का प्रयोग भी यहां देखा जाता है। इस वाक्य में घट, घटज्ञान, ज्ञानगतप्रामाण्य तथा ज्ञाता इन सभी का भान होता है। कुमारिलभट्ट के अनुसार घटज्ञान होने के बाद घट के ऊपर ज्ञातता नाम का एक नया धर्म उत्पन्न होता है । इसलिये कहा जाता है कि "ज्ञातोमयाघट:" मैंने घट को जाना यह घटनिष्ठज्ञातता प्रत्यक्षगम्य होती है। इस ज्ञातता का कारण जो ज्ञान है वह ज्ञातता से अनुमित होता है । ज्ञाततालिंगक अनुमान जिसके द्वारा ज्ञातता के कारणभूत ज्ञान का ज्ञान होता है उसी अनुमान से ज्ञान के प्रामाण्य का भी ज्ञान होता है। इस प्रकार ज्ञान ग्राहक सामग्रीग्राह्यत्वरूप प्रामाण्य (स्वतः प्रामाण्य) इस मत के अनसार भी उपपन्न जाता है । मुररिमिश्र के अनुसार ज्ञान और उसका प्रामाण्य ये दोनों चीजें अनुव्यवसाय से ही गृहीत होती हैं । अतः ज्ञानग्राहकसामग्रीग्राह्यत्व रूप स्वतः प्रामाण्य इस मत में भी सुरक्षित रहता है। इस प्रकार ज्ञान के प्रामाण्य को स्वतोग्राह्य मानने वाले मीमांसकों के यहां ज्ञान का अप्रामाण्य परत: ग्राह्य होता है। ज्ञानाधीन प्रवृत्ति जब विफल हो जाती है तब वहां कहा जाता है कि यह ज्ञान अप्रामाणिक है । इस प्रकार प्रवृति की विफलता अप्रामाण्य की जनिका है और वह ज्ञानग्राहकसामग्री से भिन्न है इस लिये अप्रामाण्य परतः ग्राह्य है। इस विवेचन से स्पष्ट होता है कि मीमामा दर्शन के अनुसार ज्ञान का प्रामाण्य स्वतोग्राह्य है और अप्रामाण्य परतो ग्राह्य है । ऊपर कहा जा चुका है कि "स्वतः” इस पद में आये हुए स्व शब्द से प्रामाण्य, उसका आश्रयज्ञान, और उस ज्ञान की सामग्री ये तीन चीजें विवक्षित हैं । ज्ञान का प्रामाण्य स्वयमेव उत्पन्न होता है यह प्रथम पक्ष का सारांश है। किन्तु यह पक्ष इसलिये मान्य नहीं है कि कार्य बिना कारण के उत्पन्न नहीं होता है। यदि कार्य स्वयमेव उत्पन्न होने लग जाये तो कार्यकारणसिद्धान्त जो सर्ववादिजनाभिप्रेत है उसका विखण्डन हो जायेगा। प्रामाण्य स्वाश्रयज्ञान से उत्पन्न होता है यह दूसरा पक्ष भी ठीक नहीं है क्योंकि ज्ञान आत्मा का एक गुण है । गुण किसी के प्रति समवायी कारण नहीं होता है । ज्ञान में यदि प्रामाण्य उत्पन्न होगा तो ज्ञान उसका समवायी कारण होगा, जो कि सर्वथा असंभव बात है । कारण कि समवायी कारण द्रव्य ही होता है। गुण समवायी कारण नहीं होता है। इसलिये दुसरा पक्ष भी ठीक नहीं है। इस बात को दृष्टिगत कर मीमांसाकों ने स्वतः खण्ड १७, अंक २ (जुलाई-सितम्बर, ६१) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524567
Book TitleTulsi Prajna 1991 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1991
Total Pages96
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size5 MB
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