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________________ अप्रामाण्य को लेकर ही उत्पन्न होता हैं। जिन साधनों से ज्ञान उत्पन्न होता है उसका अप्रामाण्य भी उन्हीं साधनों से उत्पन्न होता है। इस प्रकार अप्रामाण्य स्वत: और प्रामाण्य परतः ग्राह्य होता हैं। . जैन दर्शन के अनुसार प्रामाण्य और अप्रामाण्य ये दोनों उत्पत्ति में परतः और ज्ञप्ति में स्वतः और परतः ग्राह्य हैं । आचार्य हेमचन्द्र इस सम्बन्ध में कहते हैं कि --- ... प्रामाण्यनिश्चयः स्वतः परतो वा (प्रमाणमीमांसा सूत्र-८) . ज्ञान का प्रामाण्यनिश्चय कभी स्वतः और कभी परत: होता है । अभ्यासदशापन्न ज्ञान की सत्यता प्रमाणित करने के लिये किसी अन्य प्रमाण की अपेक्षा नहीं होती है। जल ज्ञान के बाद यदि वहां अवगाहन पानादि क्रियायें सम्पन्न हो रही है तो उसे प्रमाणित करने की क्या आवश्यकता हैं ? वह ज्ञान तो स्वतः ही प्रमाण है। किन्तु कहीं कहीं प्रामाण्य का निश्चय परत: अर्थात् दूसरे ज्ञान से होता है। जब किसी अनभ्यस्त वस्तु का प्रत्यक्ष होता है तब उस ज्ञान का पदार्थ के साथ अव्यभिचार निश्चित नहीं होता है। ऐसी स्थिति में किसी अन्य ज्ञान से ही उसके प्रामाण्य का निश्चय किया जाता है । इस प्रकार यहां ज्ञान का प्रामाण्य परत: ग्राह्य होता है। वादिदेव सूरि का इस सम्बन्ध में कहना है कि ज्ञान का साधन इन्द्रियादि यदि निर्मलता आदि गुणों से युक्त होते हैं तब उनसे जो ज्ञान होता है वह प्रमाणभूत ज्ञान होता है । यदि इन्द्रियादि साधन काचकामलादि दोष विशिष्ट होते हैं तब उनसे अप्रमाणभूत ज्ञान उत्पन्न होता है । इस प्रकार ज्ञानोत्पत्ति में इन्द्रियों का कारणत्व है और उसके प्रामाण्य और अप्रामाण्य में इन्द्रियों का गुण और दोष कारण होता है । अभ्यासदशापन्न ज्ञान का प्रामाण्य स्वतः होता है और अनभ्यासदशापन्न ज्ञान का प्रामाण्य ज्ञानान्तर से होता है । इस सम्बन्ध में उनकी उक्ति इस प्रकार है-- समयमुत्पत्तो परत एव सप्तौ तु स्वतः परतश्च --'प्रमाणनयतत्वालोक' मीमांसादर्शन उपर्युक्त सारी मान्यताओं का निराकरण करता है । इसका कहना है कि ज्ञान का प्रामाण्य स्वतः है परतः नहीं । यदि प्रामाण्यात्मिका शक्ति स्वतः नहीं है तो अन्य किसी कारण से वह वहां कहां से आजायेगी । स्वतः सर्वप्रमाणानां प्रामाण्य मिति गम्यताम् ।। नहि स्वतोऽसती शक्तिः कर्तुमन्येन पार्यते ॥ (श्लोकवार्तिक) इस प्रकार मीमांसादर्शन के अनुसार ज्ञान का प्रामाण्य स्वतोग्राह्य है और अप्रामाण्य परतः ग्राह्य । स्वतो ग्राह्य का तात्पर्य यह है कि जिस कारण से प्रामाण्य के आश्रय शान का ज्ञान होता है उसी कारण से ज्ञान के प्रामाण्य का भी ज्ञान हो जाता है । प्रामाण्यज्ञान के लिये किसी दूसरे कारण की अपेक्षा नहीं होती है। इस प्रकार इस मत के अनुसार- "ज्ञानग्राहकसामग्रीग्राह्यत्वम्" यही ज्ञान के प्रामाण्य का स्वतोग्राह्यत्व है। स्वतो ग्राह्यत्व का यह लक्षण मीमांसा के प्रसिद्ध तीनों आचार्यो-प्रभाकर, कुमारिलभट्ट और मुरारिमिश्र को मान्य है। - प्रभाकर के मतानुसार ज्ञान सप्रकाश होता है वह अपनी उत्पत्ति के समय ही ज्ञायमान उत्पन्न होता है । इसका तात्पर्य यह है कि ज्ञान की उत्पादक सामग्री ही ज्ञान का ग्राहक - तुलसी प्रज्ञा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524567
Book TitleTulsi Prajna 1991 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1991
Total Pages96
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size5 MB
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