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________________ इस बात की पुष्टि के लिये इस मत का कहना है कि प्रामाण्य और अप्रामाण्य इनका ग्रहण ज्ञान की ग्राहक सामग्री से न मानकर यदि परत: माना जाय तो उनके ग्रहण के लिये एक अतिरिक्त कारण की कल्पना करनी होगी जो एक प्रकार का गौरव ही होगा। यहां प्रश्न होता है कि प्रामाण्य की भांति यदि अप्रामाण्य स्वतः गृहीत हो रहा है तब अप्रमाणभूत ज्ञान के होते ही उसका अप्रामाण्य भी गृहीत हो गया तब वहां पुनः प्रवृति नहीं होनी चाहिये, किन्तु देखा जाता है कि लोग अप्रमाण ज्ञान के विषय में भी प्रवृत होते हैं । इस विसंगति का क्या समाधान है ? इस प्रश्न के उत्तर में कहा जाता है कि ज्ञानोत्पादक सामग्री से अप्रमाण ज्ञान के उदय होने के पश्चात् ज्ञान ग्राहक सामग्री के समवधान होने तक के कालखण्ड के बीच इस ज्ञान से भी प्रवृत्ति संभव ही है । नैयायिकों के अनुसार प्रामाण्य और अप्रामाण्य दोनों का ग्रहण परतः होता है । इनका कहना है कि प्रमात्वं न स्वतो ग्राह्य संशयानुपपत्तितः ।-(न्यायसिद्धान्तमुक्तावली-१२६) तात्पर्य यह है कि यदि ज्ञान का प्रमाणत्व स्वतः गृहीत हो जाय तो किसी भी व्यक्ति को यह संदेह नहीं होना चाहिये कि मेरा जो ज्ञान है वह ठीक है या नहीं ? किन्तु लोगों को अपने ज्ञान के प्रति सन्देह होता है इसलिये-- दोषोप्रमाया जनकः प्रमायास्तु गुणो मतः ।-(न्यायसिद्धान्त मुक्ता०-१३१) दोष अप्रामाण्य का जनक है और गुण प्रामाण्य का जनक । इस प्रकार दोनों परतः ग्राह्य है । तात्पर्य यह है कि प्रामाण्य और अप्रामाण्य दोनों का आश्रयभूत जो ज्ञान है उसे व्यवसाय कहते हैं। घट का ज्ञान होने पर "अयं घट:" जो ज्ञान होता है उसे व्यवसाय कहा जाता है। उसके बाद “घटविषयकज्ञानवानहम्" इस अनुव्यवसाय से "अयं घटः" इस ज्ञान का ग्रहण होता है। किन्तु उस ज्ञान के प्रामाण्य का ग्रहण या अप्रामाण्य का ग्रहण अनुव्यवसाय से न होकर प्रामाण्य का ग्रहण सफलप्रवृत्तिजनकत्व हेतु मूलक अनुमान से तथा अप्रामाण्य का ग्रहण विफलप्रवृत्तिजनकत्वहेतुमूलक अनुमान से होता है । जलबुद्धि से तालाब के पास गये व्यक्ति को जब जल की उपलब्धि हो जाती है तब वह व्यक्ति कहता है कि-इदं मे जलज्ञानं प्रमाणम्-सफलप्रवृत्तिजनकत्वात् । इसी प्रकार तालाब के पास जाने पर जब उसे जल नहीं मिलता तब वह कहता है कि "इदं मे जल ज्ञानमप्रमाणम् विफलप्रवृत्तिजनकत्वात् । इस प्रकार स्पष्ट होता है कि न्यायदर्शन के अनुसार ज्ञान का ग्रहण अनुव्यवसाय से तथा प्रामाण्य क्षौर अप्रामाण्य का ग्रहण अनुमान से होता है । इस प्रकार न्यायमतानुसार ज्ञान का प्रामाण्य और अप्रामाण्य स्वतो ग्राह्य न होकर परतः ग्राह्य होते हैं। जिस साधन से इनके आश्रयभूत ज्ञान का ज्ञान होता है, उस अनुव्यवसाय से गृहीत न होकर उपर्युक्त कथनानुसार अनुमान से गृहीत होता हैं। ___ बौद्ध सम्प्रदाय के अनुसार ज्ञान का अप्रामाण्य स्वत: ग्राह्य है। प्रामाण्य इनके अनुसार परतः ग्राह्य है। कोई भी ज्ञान तब तक प्रामाणिक नहीं कहा जा सकता जब तक उसका विषय मनुष्य को उपलब्ध न हो जाय । अर्थ की प्रापकता ही उसका प्रामाण्य है। इसके पहले तो ज्ञान में अप्रामाण्य ही रहता है। इस प्रकार ज्ञान अपनी उत्पत्ति के साथ खण्ड १७, अंक २ (जुलाई-सितम्बर, ६१) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524567
Book TitleTulsi Prajna 1991 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1991
Total Pages96
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size5 MB
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