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________________ १६. विज्जाचरण विणिच्छओ गणिविज्जा २०. २१. झाणविभत्ती २२. मरणविभत्तो २३. आर्यावसोही २४. वीरागसु कुछ लोग ऐसा कहते हैं और कुछ प्रतियों में २६ उत्कालिक, ३१ कालिक, १२ अंग, १ आवश्यक - इस प्रकार ७३ की संख्या निष्पन्न होती है । कुछ प्रतियों में कालिक की संख्या ३४ है और उत्कालिक की संख्या ३६ है । इस प्रकार ७३ की संख्या होती है । इनमें बारह अंग एवं एक आवस्सग के योग से ८६ संख्या हो जाती है । १२ अंग और आवश्यक सभी प्रतियों में है । अंग और आवश्यक की संख्या सभी को मान्य है । कुछ प्रतियों का उल्लेख कर जयाचार्य ने संकेत दिया है कि उत्कालिक और कालिक की संख्या ६० है तो कहीं यही संख्या ७३ है । कालिक - उत्कालिक संख्या निर्णय २५. संलेहणासु २६. विहारकप्पो २७. चरणविही २८. आउरपच्चक्रवाणं २६. महा पच्चक्रवाणं सेत्तं उक्का लिय" संख्या की दृष्टि से उत्कालिक और कालिक में इतना अंतर क्यों है ? इसका समाधान प्रस्तुत करते हुए जयाचार्य ने अपने अधिकृत ग्रन्थ में सूची प्रस्तुत की है । २६ नाम स्पष्ट हैं तथा आज भी नंदी के विभिन्न ग्रन्थों में उपलब्ध हैं । जिन प्रतियों में २६ के स्थान पर ३४ अंक हैं, सम्भवतः जयाचार्य को उपलब्ध प्रतियों में लिखने वाले लेखक ने अपनी मंति से अंकों का निर्धारण कर दिया हो । उसका समाधान प्रस्तुत करते हुए जयाचार्य वहीं लिख रहें हैं- 'कपियां कप्पियं इहां वे आंक लिख्या पिग सूत्र एक संभव । १० नामों की संख्या में दूसरे नम्बर का शास्त्र है - 'कप्पिया कप्पियं' । किन्तु उस प्रति में यह नम्बर संख्या २ कप्पिय ३ कप्पियं' ऐसा उन्हें उपलब्ध हुआ था, किन्तु यह नम्बर की संख्या ठीक नहीं है क्योंकि 'कप्पा कप्पियं' एक ही सूत्र का नाम है । संख्या नम्बर १६ में 'विज्जाचरण विणिच्छओ' पर भी दो अंक लिख दिए हैं किन्तु यह भी एक ही सूत्र का नाम है । 'विज्जाचरण विणिच्छओ इहां बे आंक लिख्या पिण सूत्र एक संभव । ९ 'झाण विभत्ती और झाण विसोही' दो ग्रन्थों के नाम से भासित होते हैं किन्तु एक ही ग्रन्थ को दो तरह से पुकारा गया है । झाण विभत्ती और झाण विसोही दो पाठ हैं किन्तु वृत्तिकार झाण विसोही का ही अर्थ करते हैं । अतः 'झाण विभक्ती और झाण विसोही' एक ही ग्रन्थ के दो नामों का कथन है । यदि दो ग्रन्थ होते तो वृत्तिकार दूसरे पाठ की भी व्याख्या करते । ' 'झाणविभत्ती झाणविसोही इहां पिण बे आंक लिख्या पिण सूत्र एक संभवे ॥१२ 'मरणविभत्ती मरणविसोही' में दो अंक दिए गए हैं, परन्तु सूत्र एक ही है, ऐसी संभावना है । वृत्तिकार ने भी मरणविसोही की व्याख्या की है, मरणविभत्ती की नहीं । 'मरणविभत्ती मरणविसोही इहां पिण बे आंक लिख्या पिण सूत्र एक संभवे । "" तुलसी प्रशा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524562
Book TitleTulsi Prajna 1990 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmal Tatia
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages74
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size4 MB
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