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गता को महत्त्व दिया है । आगम एव शुद्ध आचरण का निर्णय वीतरागता है। ऐसा ही उल्लेख बौद्ध परम्परा के 'दीर्धनिकाय महापरिनिर्वाण सुत्त में मिलता है। वहां कहा गया है कि
१. भगवान् बुद्ध द्वारा उपदिष्ट अथवा आचरित विचार ही आगम हो सकता है। उसके अनुसार आचरण किया जा सकता है ।
२. यदि यह उपलब्ध न हो तब किसी समग्र संघ विशेष से सुने हुए आचरण के अनुसार आचरण किया जा सकता है।
३. ऐसा न मिलने पर बहुश्रुतधर, आगमधर, भिक्षुओं से सुने आचरण के निर्देश के अनुसार प्रवृत्ति की जा सकती है।
४. ऐसा भी संयोग न हो तब किसी आचार्य विशेष से सुना हुआ आचरण कार्य के लिए स्वीकृत किया जा सकता है । इन चारों की कसौटी का आधार है-विनय
और सुत्त की मौलिक वाणी के विरुद्ध न हो, साथ ही प्रतीत्यसमुत्पाद (अनित्यता) धर्म का अनुशीलन करने वाला हो। .
वैदिक परम्परा में भी वेद, श्रुति, स्मृति, सदाचार और विवेक की कसौटी से गुजरकर ही श्रेष्ठ आचरण को स्थापना हो सकती है । आगम कितने और क्यों मान्य हैं ?
जयाचार्य की निर्मलप्रज्ञा भी इसी यथार्थ की उद्घोषणा करती है। आगम अधिकार एवं अन्य स्थलों में आगम मान्यता की चर्चा में उनके द्वारा यही विश्लेषित हुआ है ? “आगम कितने और क्यों मुझे मान्य हैं ?"-इस पर चर्चा करते हुए वे अपने लघु ग्रन्थ '८४ आगम अधिकार में लिखते हैं
"कोई कहे नंदी सूत्रे केई पडतां में २६ उत्कालिक कह्या अनै ३१ कालिक कह्या एवं ६० अने १२ अंग एवं ७२ आवसग एवं ७३ नाम कह्या । अने केई पडतां में उत्कालिक नां ३४ आंक अने कालिक रा ३६ अंग लिख्या । ७३ एवं १२ अंग एवं ८५ आवसग ८६ । अंग एवं आवसग सर्व पडतां में कह्या । केइ पडतां में ६० आंक लिख्या । अने केई पडतां में उत्कालिक, कालिक रा ७३ नाम लिख्या । इतो फेर ते किम ? तेहनो न्याय कहे छ । प्रथम तो उत्कालिक सूत्र नंदी री पडतां में २६ आंक लिख्या-- १. दसवेयालिअं
१०. पमायप्पमा २. कप्पिया कप्पियं
११. नंदी ३. चुल्लकप्पसुयं
१२. अणुओगद्दाराई ४. महाकप्पसुयं
१३. देविदत्थओ ५. ओवाइयं
१४. तंदुलवेयालियं ६. रायपसेणि (णइ) यं
१५. चंदगविज्झय ७. जीवाभिगमो (जीवाजीवाभिगमे) १६. सूरपण्णत्ती ८. पण्णवणा
१७. पोरिसिमंडलं ६. महापण्णवणा
१८. मंडलपवेसो
खण्ड १६, अंक १ (जूब, ६०)
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