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________________ मान्यता का आधार है। उनके उपदेशों से कोई आप्त पुरुष सूत्रों को गुम्फित कर आगम की रचना कर सकते हैं। तीर्थंकर का उपदेश वीतरागता के अर्थ से युक्त होता है, उससे ही गणधर सूत्रों की रचना करते हैं । गणधरों की अनुपस्थिति अथवा अन्य स्थविरों की रचना को भी आगम में उसी कसौटी पर मान्य किया गया है, यदि वे जिन के साक्ष्य एवं उनके अविरुद्ध रचे गए हों। आगम के अनुरूप ग्रन्थ भी मान्य आप्त पुरुषों के अभाव में आचार्यों द्वारा रचित ग्रन्थ मान्य किए जा सकते हैं यदि वे ग्यारह अंग से अविरुद्ध हों। अजीमगंज के श्रावक बाबू कालूरामजी ने विक्रम संवत् १९३३ में ५२ दोहों की प्रश्नावली लाडनूं के श्रावकों के साथ जयाचार्य के पास भेजी। उसमें आगम के सम्बन्ध में कुछ प्रश्न थे। उसके पुत्युत्तर में जयाचार्य ने लिखा 'एकादश जे अङ्ग थी, मिलता वचन सुजाण । सर्व मानवा योग मुझ, पइन्ना प्रमुख पिछाण ॥" पइन्ना आदि सभी ग्रन्थ एकादश अङ्ग से मिलते हुए मुझे मान्य हैं । आगम की स्वीकृति का मूल आधार वीतराग सम्पन्न दृष्टि है । शुद्धाचार की कसौटोः पांच व्यवहार जैन परम्परा में शुद्ध आचरण की कसौटी पांच' प्रकार से की जा सकती है, जिन्हें पांच व्यवहार कहा जाता है-१. आगम में उपदिष्ट, २. आगम में स्पष्ट निर्दिष्ट नहीं है फिर भी किसी स्थविर ने आप्त पुरुषों से सुना हो, उस श्रुत के आधार से आचारण किया जा सकता है, ३. ये दोनों न हो तो आचार्य की आज्ञा के अनुसार किया जा सकता है, ४. आज्ञा देने वाले आचार्य भी उपलब्ध न हो तब उपस्थित संघ की जो धारणा है उसके अनुसार किया जा सकता है, ५. यह भी प्राप्त न हो तब शुद्ध नीतिवान् व्यक्तियों द्वारा निश्चित किया गया पथ जीत-व्यवहार है। "सूत्तर में तो कठे न वरज्यो, परम्परा में वरज्य। नाय, तिणस्यू निर्दोष जीत व्यवहार थायण में शंक मे राखो काय" (परम्परा की जोड़ किवाडिय की ढाल) के अनुसार आचरण किया जा सकताहै। यहां प्रश्न उपस्थित हो सकता है, इन सबको किस कसौटी से कस कर यथार्थ निर्णय करें। उसके लिए आठारह स्थानों का उल्लेख किया है । अठारह स्थानों की विराधना एवं उसके विरुद्ध कर्म न हो। छट्ट व्रत, छट्टाय, अहिंसा, रात्रि भोजन आदि छट्ट व्रत, पृथ्वीकाय आदि छह-काय, स्नान, शोभा विभूषादि, छट्ट नियमों की विराधना करने वाला निग्रन्थता से भ्रष्ट हो जाता है। इसकी कसौटी का दूसरा आधार है-पांच महाव्रत, आठ प्रवचन । इन १३ नियमों के विपरीत आचरण नहीं होना चाहिए। दिगम्बर परम्परा ने मूल में गुणों से विपरीत आचरण को आगम विरुद्ध माना है। - भगवान् महावीर ने वस्तु, विचार और व्यक्ति को महत्त्व नहीं दिया है, वीतरा तुलसी प्रज्ञा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524562
Book TitleTulsi Prajna 1990 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmal Tatia
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages74
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size4 MB
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