SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 5
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आगमों की प्रामाणिक संख्या : जयाचार्यकृत विवेचन - मुनि किशनलाल आगम पुरुष जयाचार्य जयाचार्य आगम पुरुष हैं । यह उनके ज्ञान की गहनता और दृष्टि की निर्मलता से स्पष्ट उद्घोषित होता है । उनकी रचनाओं में आगम के उद्धरण और उनके पूर्वापर सम्बन्ध की समीक्षात्मक टिप्पणियों ने उन्हें अपने युग का एक विलक्षण, निष्पक्ष, आगम की परम्परा को पुष्ट करने वाला बना दिया। उनकी दृष्टि और दर्शन का आधार आचार्य भिक्षु की रचनाएं और परम्परा है। उसके आधार पर ही उन्होंने अपनी रचनाओं को आगम की कसौटी पर कसा । आचार्य भिक्षु की वाणी और मर्यादाओं की आगम व्याख्याएँ प्रस्तुत कर दर्शन और आचार की परम्परा को संपुष्ट और अक्षुण्ण बनाया। आगम कैसे बनते हैं ? आचार्य भिक्षु एवं जयाचार्य का स्पष्ट अभिमत है कि जिन की साक्षी से ही जो दश, चवदह पूर्वधारी आगम की रचना करते हैं, वे ही आगम हैं। जो जिन (तीर्थंकर) की साक्षी के बिना आगम, सूत्रों की रचना करते हैं, वे छद्मस्थ द्वारा रचे हुए कैसे-मान्य किए जाएं ? न्याय से तौलने से यह स्पष्ट हो जाएगा। नंदी थिरावली अधिकार में लिखते हैं 'वश चौदश पूर्व घरा, आगम रचै उदार । ते पिण जिन नी साख थी, विमल न्याय सुविचार ।। पिण जिन नी जे साख विन, आगम सूत्र अमोल । छमस्थ कृत किण विध हुवै, न्याय तराजू तोल ॥" छद्मस्थ कितना. ही बड़ा ज्ञानी क्यों न हो, स्खलन की संभावना बनी रहती है क्योंकि अभी तक उसके सम्पूर्ण राग-द्वेष का विलय नहीं हुआ है । अनुपयोगी अवस्था में भी हठात् अन्यथा निर्णय भी कर सकते हैं । इसलिए जिन का साक्ष्य आवश्यक माना है । चार ज्ञान और चौदह पूर्व के धारक प्रधान गणधर गौतम गणी भी छद्मस्थता के कारण स्खलित हो गए, ऐसा सातवें अंग में है 'ची नाणी गोयम गणी, चौदश पूर्व धार । ते पिण वचन खलाविया, सप्तम अङ्ग मझार ॥२ इससे यह स्पष्ट है-वीतराग पुरुष का वचन एवं उनका उपदेश ही हमारी आगम खण्ड -१६, अंक १ (जून, ६०) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524562
Book TitleTulsi Prajna 1990 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmal Tatia
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages74
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size4 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy