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________________ जिनेन्द्र वन्दना 'निशीथचूर्ण' के अनुसार "अब्भद्वाणदंडग्गहण पाय-पुच्छणासणप्पदाणगहणादीहिं सेवा ना सा भत्ति । ४ अर्थात् आचार्य के सम्मान में खड़े होना, दण्ड ग्रहण करना, पद प्रक्षालन, आसन प्रदान करना आदि सेवा ही भक्ति है । किन्तु यह जिज्ञासा उत्पन्न होती है कि जैन सिद्धान्तों के अनुसार जिनेन्द्र न कर्ता है न भोक्ता, फिर भक्त अपनी स्तुतियों में उसे कर्ता के रूप में क्यों स्मरण करता है । क्योंकि जिनेन्द्र स्वयं वीतराग है । ऐसे वीतराग भगवान् को न पूजा की आवश्यकता है और न वन्दना की। वे निन्दा से मुक्त हैं, क्योंकि वे वैरभाव से मुक्त हैं। भक्त अपने कर्त्ता के पुण्य गुणों का स्मरण कर चित्त को पाप-मलों से पवित्र करता है । भगवान् को भक्त के इस स्मरण का भान भी नहीं होता, किन्तु उन्हीं के गुणों के स्मरण से भक्त का चित्त पाप रहित हो पवित्र होता है । अत: भक्त उन्हें कर्ता ही कहता है । इसी दृष्टि को बल प्रदान करने के लिए जैन भक्तों ने अपनी रचनाओं में जिनेन्द्र वन्दना की है । इस प्रकार अर्हन्त में अनुराग, सुश्रद्धा के प्रगाढ़ रूप, सेवा आदि को भक्ति कहा गया है । हिन्दी कवियों को, साधनात्मक क्षेत्र में, जैन कवियों का दिव्य अवदान प्राप्त हुआ है। जैन कवियों की रचनाओं में उपलब्ध ज्ञान, कर्म, योग, समरसता, माया, दाम्पत्यमूलक प्रेम विषयक दृष्टि ने हिन्दी कवियों का साधनात्मक मार्ग प्रशस्त किया है । सन्दर्भ : १. नारद - भक्ति सूत्र, १६ २. शांडिल्य - भक्ति सूत्र, १1१1१ ३. श्रीमद् भागवत्, स्कन्द ३, अध्याय- २५, ४. हरिवंश पुराण, ३४-१४१ श्लोक ३२-३३ ६. प्रवचनसार, ३-४६ ८. वही, ११७ १०. पंचाध्यायी, २-४७० १२. जैन शोध और समीक्षा, पृ० ३८ १४. जैन शोध और समीक्षा, पृ० ३६ ( शेषांश पृष्ठ ११ का ) १५. ८४ आगम अधिकार, पृष्ठ ५ १६. पंच अने चालीस में, जे चिह्न शरण विचार । भक्त नाम परिज्ञा वलि, पुन पईन्ना संथार || जीत कल्प, पिंड नियुक्ति पचखाण कल्प अवलोय ए षट् नी नंदी बिषे, साख नहीं छे कोय १७. आचार्य जीतमलजी का व्याख्यान ५. उपासकाध्ययन, २१५ ७. भगवती आराधना, ४७ ६. योगशास्त्र, २-१६ ११. सर्वार्थसिद्धि, ६, २४ १३. अभिधान राजेन्द्र कोश, ३४ १८. पुव्वि मणुयाण छ विह संघयणे आसी, तं जहा - समघउरसे झावहुंडे | सपइ खलु आउसो हुंडे संठाणे वट्टइ । १६. देविंद चक्कवट्टी तणाई रज्जाई उत्तमे भोए । पत्तो अनंत खूत्तो नयहुंति तितया तो वो ॥ २०. प्रश्नोत्तर - तत्त्वबोध, पृष्ठ ६१, दोहा ५१३ Jain Education International - प्रश्नोत्तर- तबबोध, पृष्ठ ६० पृ० ७७६ For Private & Personal Use Only डुलसी प्रज्ञा www.jainelibrary.org
SR No.524562
Book TitleTulsi Prajna 1990 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmal Tatia
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages74
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size4 MB
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