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________________ अनुराग ही भक्ति ___सोमदेव सूरि 'जिने जिनागमे सूरो तपः श्रुतपरायणे । सभावशुद्धि संपन्नोनुरामो भक्तिरुच्यते" को भक्ति कहते हैं । अर्थात् जिन-भगवान् में, जिन-भगवान् के द्वारा कहे हुए शास्त्र में, आचार्य में और तप और स्वाध्याय में लीन मुनि आदि में विशुद्ध भावपूर्वक जो अनुराग होता है उसे भक्ति कहते हैं । जयसेन के अनुसार 'अनन्तगुणयुक्तेष्वहसिद्धेषु गुणानुरागयुक्ता भक्तिः अर्थात् अरहंतादि पंचपरमेष्ठियों में अनुराग भक्ति है । अपराजित सूरि 'अहंदादिगुणानुरागो भक्तिः' तथा 'वदननिरीक्षणादिप्रसादेनाभित्यज्यमानान्तर्गतोनुरागो भक्तिः'", हेमचन्द्राचार्य 'भक्तिः प्रवचने विनयवैयावृत्यरूपा प्रतिपत्तिः', राजमल्ल 'तत्र भक्तिरनोद्धत्यं वाग्वयुश्चेतसां शमात्° को भक्ति कहते हैं। पूज्यपाद के मतानुसार 'अर्हदाचार्येषु बहुश्रुतेषु प्रवचने च भावविशुद्धियुक्तोनुरागो भक्तिः १ अर्थात् अरिहंत, आचार्य, बहुश्रुत और प्रवचन इनमें भावों की विशुद्धि के साथ अनुराग रखना अरिहंत भक्ति, आचार्य भक्ति, बहुश्रुत भक्ति और प्रवचन भक्ति है। किन्तु वीतराग भगवान् में जो स्वयं राग रहित हैं और जो राग त्यागने का उपदेश देते हैं, अनुराग कैसे सम्भव है, यह राग कैसा ही हो वह कर्मबन्ध का कारण है। बन्ध का हेतु आचार्य कुन्दकुन्द के मतानुसार वीतराग भगवान् में किया गया अनुराग पाप के बन्ध का कारण नहीं है । २ आचार्य योगीन्दु की मान्यता है कि 'पर' में होने वाला राग ही बन्ध का हेतु है, 'स्व' में होने वाला नहीं । वीतरागी परमात्मा 'पर' नहीं, वह 'स्व' आत्मा है । अतः जिनेन्द्र में राग करना अपनी आत्मा से ही प्रेम करना है। 'स्व' में राग करने वाला मोक्षगामी होता है। इसके अतिरिक्त वह ही राग बन्ध का कारण है, जो संसारिक स्वार्थ से प्रेरित होकर किया गया हो । निष्काम अनुराग में कर्मों को बांधने की शक्ति नहीं होती। वीतराग में किया गया अनुराग निष्काम है। वीतराग पर रीझकर ही भक्त ने वीतराग में अनुराग किया है । इसके परिवर्तनार्थ यदि वीतराग भगवान् अपने भक्त से अनुराग करने लगे, तो भक्त का रीझना ही समाप्त हो जायगा । भक्त भगवान् से न दया चाहता है और न अनुग्रह, न प्रेम ही। सम्यक् श्रद्धा आचार्य हेमचन्द्र के 'प्राकृत व्याकरण' में श्रद्धा को ही भक्ति कहा गया है।। 'पाइअ-सहमहागणवो' में भी भक्ति के साथ सेवा और श्रद्धा की गणना की है। श्रावक शब्द के लिये 'अभिधान राजेन्द्र कोश' में लिखा है-श्रन्ति पचन्ति तत्वार्थश्रद्धानं निष्ठां नयन्तीति श्राः । १२ श्रावक श्रद्धा द्वारा ही आत्म-साक्षात्कार का फल प्राप्त कर लेता है । वह अपनी आत्मा को देखने का प्रयास नहीं करता, किन्तु जिनेन्द्र में श्रद्धा करता है । जिनेन्द्र और आत्मा के स्वभाव में ऐक्य है । अतः वह जिनेन्द्र को, श्रद्धा से, अपनी शुद्ध आत्मा से परिचित हो जाता है। किन्तु इस श्रद्धा का सम्यक् (शुद्ध) श्रद्धा होना आवश्यक है । जैन शास्त्रों में अन्धश्रद्धा की चर्चा नहीं है। अतः जैन आचार्यों ने सुश्रद्धा के प्रगाढ़ रूप को ही भक्ति कहा है। श्रद्धा ही जैन भक्ति की आधार-भूमि है । खण्ड १६, अंक १ (जून, ६०) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524562
Book TitleTulsi Prajna 1990 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmal Tatia
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages74
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size4 MB
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