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________________ परिग्रह का अर्थ है-- ममत्व बुद्धि । जो पकड़ा गया है वह परिग्रह नहीं, जो पकड़े हुए है वह परिग्रह नहीं । परिग्रह है----पकड़, मन की पकड़ यानी मूर्छाभाव । यह मैं, मेरी मां, मेरी बहिन जैसा कि आयारो" में उल्लेख है। यह मेरा, यह पराया-मन की यह भावना ही परिग्रह है। वस्तु का धर्म गुण है। वस्तु का उपयोग उसकी सार्थकता है, परिग्रह नहीं । वस्तु की मात्रा परिग्रह नहीं है। हालांकि व्यवहार में परिग्रह का अर्थ संग्रह है। उसके प्रति हमारा भाव, उसके प्रति हमारा व्यवहार परिग्रह है। हमारे प्रति उसका व्यवहार परिग्रह नहीं। इसीलिए दशवैकालिक सूत्र में कहा गया है जं पि वत्थं व पायं वा कंबलं पायपुंछणं । तं पि संजमलज्जट्ठा धारंति परिहरंति य ॥ न सो परिग्गहो वुत्तो नायपुत्तेण ताइणा। मुच्छा परिग्गहो वृत्तो इइ वुत्तं महेसिणा ॥ धर्मपालन अथवा संयम निर्वहन के लिए जो भी वस्तुएं ममत्व भाव से ग्रहण या धारण की जाती हैं वे सब परिग्रह की कोटि में नहीं आतीं। परिग्रह वही कहलाएगा जब कोई वस्तु ममत्वबुद्धि से ग्रहण की जाएगी। विचारणीय प्रश्न है कि वस्तु के प्रति हमारी पकड़ कितनी गहरी है। मूर्छा की सघनता से दृष्टि पदार्थोमुखी हो जाती है। उससे अधिक से अधिक भौतिक संसाधन जुटाने का प्रयत्न होता है। उनका उत्पादन, असीमित कामनाएं व्यक्ति को हिंसा के लिए बाध्य करती हैं। वह झूठ और चोरी का भी सहारा लेता है। जितना झूठ उतना तनाव, जितना तनाव उतने रोग, उतनी मानसिक व भावनात्मक विकृतियां। विकृत मानसिकता, रुग्ण समाज को जन्म देती है । इसलिए बाह्य संग्रह से अधिक भीतरी मूर्छा का भाव परिग्रह की सही पहचान बनता है। ___ परिग्रह के प्रकार-उपर्युक्त परिभाषा के आधार पर ही परिग्रह के दो प्रकार किए गए-१. बहिरंग परिग्रह, २. अंतरंग परिग्रह। दो प्रकारों में भी प्रथम स्थान अंतरंग परिग्रह को ही दिया गया । जब आत्मा अपने निजी स्वभाव ज्ञान, दर्शन चारित्र युक्त, शुद्ध, पवित्र भाव को छोड़कर क्रोधादि कषायों या त्रिशल्यों, हास्यादि विकारों या रागद्वेषादि के रंजित होती है तब ये सारे विकार आत्मा के लिए अंतरंग परिग्रह कहलाते हैं। १४ प्रकार के अंतरंग परिग्रहर बतलाये गये हैं—१. भिश्याव, २. राग, ३. द्वेष, ४. क्रोध, ५. मान, ६. माया, ७. लोभ, ८. हास्य, ६. रति, १०. अरति, ११. शोक, १२. भय, १३. जुगुप्सा और १४. वेद । ममत्वबुद्धि से ग्रहण किए जाने पर बाह्य पदार्थ भी बहिरंग परिग्रह बन जाते हैं। शास्त्रों" में इसे १० भागों में विभक्त किया गया है-१. क्षेत्र, खेत, नगर, गांव, राष्ट्र, २. वस्तु-मकान, बंगला और दुकान, ३. हिरण्य-सोना-चांदी, ४. सुवर्ण, ५. धनहीरा-पन्ना। ६. धान्य -गेहूं आदि अनाज, ७. द्विपद चतुष्पद, ८. दासी-दास, ६. कृत्य-सोने-चांदी के अतिरिक्त वस्त्र, बर्तन, पलंग आदि का सामान, १०. धातु, तांबा, पीतल आदि। २६ तुलसी प्रज्ञा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524562
Book TitleTulsi Prajna 1990 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmal Tatia
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages74
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size4 MB
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