SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 29
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ में वह मूल समस्या नहीं है, वह एक अभिव्यक्ति है। मूल समस्या है-अविशती तथा यह एक अमर प्यास है जिसे जितना मिटाने का प्रयत्न करेंगे इसकी प्यास गुणित होती चली जाएगी यथा 'सुवण्ण-रुप्पस्स उ पध्वया भवे, सिया हु केलाससमा असंखिया। नरस्स लुद्धस्स न तेहि किंचि, इच्छा उ आगाससमा अणन्तिया ॥' अतएव आयारो में भगवान् महावीर ने एक अनुभूत सत्य का उद्घाटन किया'अग्गं च मूलं च विगिच धीरे ।' हे धीर तू (दुःख के) अग्र और मूल का विवेक कर। बीज की सत्ता, उर्वरभूमि, जल का सिंचन--सब कुछ मिले और बीज अंकुरित न हो ..... ... यह वैसी ही चाह है जैसे कि वायुमण्डल में मीथेन, औजोन सी ओ, नाइट्रोजनआक्साइड की मात्रा बढ़े और पृथ्वी का तापक्रम न बढ़े : शोरगुल हो और ध्वनिप्रदूषण न हो, पवित्र जल में रंगीन द्रव्य और कूड़ा कचरा बहाया जाए और जल प्रदूषण न हो, यह कभी सम्भव नहीं। लेकिन पदार्थवादी चेतना से ग्रस्त व्यक्ति की दृष्टि स्थूल पर पड़ती है। वर्तमान में सांप्रदायिकता, जातियता, आतंकवाद, भाषावाद, प्रान्तीयता, सामाजिक-आर्थिक विषमता आदि रूपों में होने वाली हिंसक घटनाओं को रोकने के लिए तथा दूसरे देशों के आक्रमण करने की आशंका में बहुत सारे देश अरबों रुपयों को शस्त्र निर्माण में लगा रहे हैं। ऐसे उपक्रमों से हिंसा बढ़ी है। यह निर्विवाद सत्य है, इसका सबल प्रमाण है दो-दो महायुद्ध । इससे न केवल प्रतिहिंसा का ही जन्म होता है अपितु नाना प्रकार के समाज गतिरोधक तत्त्व भी पनपते चले जाते हैं। यथा-गरीबी, भूखमरी, शोषण, भ्रष्टाचार, धोखाधड़ी, गड़बड़घोटाले, बेरोजगारी, निरक्षरता इत्यादि। ___ अतः यथार्थ में हिंसा को सीमित अथवा समाप्त करने के लिए इसके मूल प्रेरणास्त्रोत (परिग्रह) सिद्धांत को भलीभांति समझना होगा। अपरिग्रह दर्शन की व्याख्या भी बिना परिग्रह की व्याख्या के पूरी नहीं हो सकती। जब तक परिग्रह का तत्त्व ज्ञात नहीं होगा तब तक अपरिग्रह के तत्त्व को जानना कठिन होता है, इसलिए दोनों का ज्ञान एक दूसरे के निमित्त है। ___अब सर्वप्रथम परिग्रह के स्वरूप का विश्लेषण अपेक्षित है। अनेक परिभाषाएं दी गई—'लोभकषायो दयाद्विषयेषु संगः परिग्रहः ।२७ पुनश्च प्रश्न व्याकरण में 'लोकपरिग्गहो रिम्मणवरेहि भणिउतो ।' ___ संसार की जितनी भी प्रवृत्तियां हैं वे सारी लोभ से संचालित होती हैं । क्रोधादि कषाय व विषयभोग आदि तो इसकी पैदाइश है । वास्तव में लोभ ही संसार के समस्त पदार्थों को ग्रहण करने, अपनाने, उपयोग करने और संग्रह करने में प्रबल प्रेरक तत्त्व है। इसलिए लोभ की मनोवृत्ति परिग्रह है, ऐसा ठीक कहा गया। यह परिभाषा परिग्रह के एक पक्ष के विशेष लक्षण को ही निर्देशित करती है । इसलिए एक और परिभाषा विमर्शनीय है जो परिग्रह के सही स्वरूप का चित्रण करती है __ 'मुच्छापरिग्गहो कुत्तो। इसी के समर्थन में ममेदबुद्धि लक्षणः परिग्रहः पुनश्च जे ममाइय यति जहाति, से जहाति ममाइयं२९ ।' खण्ड १६, अंक १ (जून, ६०) २५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524562
Book TitleTulsi Prajna 1990 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmal Tatia
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages74
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size4 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy