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कारण तो आधुनिक विषमता की खाई बनती है । इसलिए बहुत बार हिंसा विवशता की कुक्षी से जन्म लेती है । भूखा व्यक्ति बगावत नहीं करेगा तो क्या करेगा ? यदि संपन्न लोग क्रूरता से मुक्त हों तों हिंसा का बीज अंकुरित नहीं हो सकता। जमींदार भूमिहीनों के प्रति करुणाशील नहीं है, देश के कर्णधार युवा हाथ डिग्री लिए रोजगार की तलाश में भटक रहे हैं । न्यायालय से न्याय शब्द गायब होता जा रहा है। पुलिस और अपराधियों की सांठगांठ यथार्थ पर पर्दा डाल देती है । ये स्थितियां हिंसा के बीज अंकुरित करने के लिए उर्वरा बन सकती हैं । एक व्यक्ति की जीवनरक्षा के लिए आधु िक चिकित्सा में बहुत सारे निर्दोष प्राणियों को जीवन रहित किया जाता है । अलग-अलग किस्म की दवाइयों के निर्माण में अनगिनत जानवरों का खून वगैरह काम में लिया जाता है। साथ में पहला प्रयोग भी उन्हीं पर होता है, समाप्त तक हो जाते हैं। जब व्यक्ति ने अपने आपको श्रेष्ठ मानकर खींची तब से उसकी सुख-सुविधा के लिए छोटे जीवों का इसीलिए आचार्य भिक्षु का करुण हृदय बोल उठा - "रांका ने
जिसके जहर से वे दूसरों से भेद रेखा
संबंध निरूपण - उपर्युक्त सभी कारणों की चर्चा करके भी यह चर्चा शाखा, फूलपत्तों के रूप में हुई है । तब प्रश्न उठता है कि हिंसा का ऐसा कौनसा कारण है जो दूसरे- दूसरे निर्माताओं को उद्दीप्त करता है ? वह मूलभूत जड़ है- अहंकार और ममकार ( मैं और मेरा ) सारी की सारी स्थूल व सूक्ष्म हिंसा इस एक तत्त्व द्वारा संचालित होती है । अतः दोनों का संबंध निरूपण जरूरी है। हिंसा का संबंध परिग्रह से जुड़ा हुआ है। एक प्रसंग में जब आचार्य सुधर्मा से पूछते हैं- 'भगवान् महावीर की वाणी में बंधन क्या है ? ' --- प्रत्युत्तर में आचार्य सुधर्मा कहते हैं- 'परिग्रह बंधन है, हिंसा बंधन है, संबंध का हेतु हैं ममत्व । जहां परिग्रह हैं वहां हिंसा का होना निश्चित है । परिग्रही व्यक्ति ही प्राणियों का वियोजन करता है ।'
एक नदी के दो कूल - परिग्रह और हिंसा परस्पर सघनता से प्रतिबद्ध हैं। ये दोनों एक ही वस्त्र के दो छोर हैं । एक को रखकर दूसरे को छोड़ना असंभव है । परिग्रह है तो हिंसा रहेगी और हिंसा है इसका मतलब है भीतर परिग्रह बैठा है ? कभी-कभी आवश्यक प्रतिक्रमणात्मक हिंसा आदि को अहिंसा मानने में हम मानसिक संतुष्टि भले ही कर लें, सिद्धांत की सुरक्षा नहीं होगी। जहां रागात्मक और द्वेषात्मक परिणति हो और हिंसा न हो, यह कभी संभव नहीं ।
अविनाशी संबंध" — इच्छा ज्यादा + परिग्रह (पदार्थ) ज्यादा हिंसा ज्यादा । यह गणितीय संबंध है, त्रैकालिक सत्य है । इन तीनों की आत्यान्तिक व्याप्ति है । इनमें से किसी एक को पृथक नहीं किया जा सकता । हम लोग केवल शीर्ष की चर्चा करते हैं, मूल को भुला देते हैं । २४..... हिमखंड का सिरा दिखाई देता है, बर्फ का पहाड़ पानी में छिपा रहता है । इसी तरह हिंसा एक भयंकर समस्या लगती है तो बहुत गहरे छिपी रहती है । उसकी ओर ध्यान ही नहीं जाता । हिमखंड को देखने की । आकांक्षा को खुली छूट देकर भय, शस्त्र निर्माण और हिंसा को कम करने की बात सोचना व्यर्थ है ।
किन्तु उसकी आग
जरूरत है --छिपे
हिंसा मात्र क्रिया है— हमें हिंसा की क्रिया एक बड़ी समस्या लगती है । वास्तव
तुलसी प्रज्ञा
२४.
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नाश बढ़ता जा रहा है । मार धींगा ने पोखे ।"
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