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________________ सामग्री के लिए उनकी जीवनलीला समाप्त कर देता है। इसलिए कहा गया हैइन्द्रिय भोग हिंसा का बहुत बड़ा कारण बनता है । वासनापूर्ति के लिए बीज (जानवर) को मारकर इत्र तैयार किया जाता है। शरीर को सुखद लगे ऐसे परिधानों के लिए छोटे-छोटे मासूम निर्दोष जानवरों की खींच-खींच कर खाल उतारी जाती है । यह सारी अनावश्यक हिंसा है जिसका कोई सिर, पैर नहीं। ये ऐसी आवश्यकताएं हैं जिनका कोई पार नहीं । अतः आवश्यकता बढ़े और हिंसा न बढ़े यह असंभव है।। हिंसा के वैज्ञानिक निर्धारक-शरीर शास्त्रीय दृष्टि से हिंसा के दो आंतरिक कारण हैं १. नाड़ी तंत्रिय असंतुलन, २. रासायनिक असंतुलन । केन्द्रीय नाड़ी संस्थान का एक महत्त्वपूर्ण भाग स्वागत्तनाड़ी संस्थान है। इसमें अनुकम्पी नाड़ी संस्थान और परानुकंपी नाड़ी संस्थान ज्यादा सक्रिय होने से व्यक्ति न चाहते हुए भी हिंसक बन जाता है। २. उपर्युक्त मस्तिष्कीय कारण सूक्ष्म ग्रंथितंत्रीय कारण हैं। क्योंकि पीयूषग्रंथि से स्रावित स्राव का प्रभाव अधिवृक ग्रंथि पर कम होता है क्योंकि इसका स्राव तीव्र हो जाता है। इसके फलस्वरूप व्यक्ति हिंसा में प्रवृत्त हो जाता है। चेतना के स्तर पर हिंसा के आंतरिक कारण कई हैं.---१. भावनात्मक तनाव, २. मानसिक चंचलता, ३. अहं भावना, ४. हीन भावना, ५. वैचारिक आग्रह और मिथ्यादृष्टिकोण। मनोवैज्ञानिक कारण-मनोवैज्ञानिक कारण का समर्थक तत्त्व है-तनाव । तनाव दो प्रकार का होता है-आवेशजन्य और अवसादजन्य । क्रोध और लोभ का तनाव आवेशजन्य और निराशा, निष्क्रियता, निठल्लेपन से उत्पन्न अवसाद जन्य है। दोनों प्रकार के तनाव व्यक्ति को हिंसा की ओर ले जाते हैं। घृणा, भय और ईर्ष्या आदि निषेधात्मक विचार और व्यवहार हिंसा के बहुत बड़े कारण बनते हैं। हिंसा मौलिक मनोवृत्ति नहीं-कुछ मनोवैज्ञानिकों-फ्रायड, मैक्डूगल आदि ने हिमा (संघर्ष) को एक मौलिक मनोवृत्ति कहा है लेकिन आधुनिक अनुसंधान ने यह सिद्ध किया कि हिंसा का कारण मौलिक मनोवृत्ति न होकर सामाजिक व्यवस्था के मानदण्ड ही वैयक्तिक हिंसा से लेकर विश्वयुद्ध तक का कारण बनते हैं। महात्मा गांधी ने कहा-प्रतिहिंसा व्यवहार हिंसा की ज्वाला को प्रज्वलित करती रहती है। १. एकाधिकार मनोवृत्ति—प्रत्येक व्यक्ति अपना अधिकार क्षेत्र बढ़ाने की धुन में अकृत्य करने से भी नहीं हटता। एक राष्ट्र दूसरे राष्ट्र पर बाज की दृष्टि रखता है। विकासशील देशों में बाजार फैलाकर उन पर अपनी साम्राज्यवादी नीति लादने की कोशिश करता है। वह सर्वशक्तिशाली राष्ट्र का खिताब जीतना चाहता है-'अकडं करिस्यामित्ति मण्णमाणे ।' मैं वह करूंगा, जो समाज में आज तक किसी ने नहीं किया। यह घिनौना विचार सदैव हिंसा को खुला समर्थन देता रहा है। २. सामाजिक व आर्थिक विषमता-हिंसा एक कार्य है, वह कारण नहीं, उसका खण्ड १६, अंक १ (जून, ६०) २३ . Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524562
Book TitleTulsi Prajna 1990 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmal Tatia
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages74
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size4 MB
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