SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 31
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ संग्रह की अन्धी दौड़ में आज का विश्वमानव बस तो क्या हजारों प्रकार के पदार्थों का परिग्रह करने में लगा हुआ है। जैसे ही बाजार में कोई नया मॉडल आता है। उसे सबसे पहले खरीदने की फिराक में रहता है । आधुनिकता की अधूरी समझ से व्यक्ति वर्णनवादी संस्कृति का दास बनकर रह गया । कठपुतले की जिन्दगी बसर कर रहे हैं । मूलभूत दो प्रकार के होते हुए भी भिन्न-भिन्न संदर्भों में अलग-अलग प्रकार बतलाए गए । परिग्रह के तीन प्रकार स्थानांग " सूत्र में बतलाए गए हैं। असंयम के रूप में परिग्रह का एक वर्गीकरण प्रस्तुत किया गया है ।" अन्य परिग्रह वैचारिक परिग्रह - वर्तमान शीतयुद्ध वैचारिक परिग्रह का एक परिणाम है। विचारों का परिग्रह वस्तुओं से ज्यादा खतरनाक होता है । हम जैसा जीवन पसंद करें, हमारे जो विचार हों, भावनाएं हों, वैसा ही दूसरों का होना चाहिए । यही होता है वैचारिक परिग्रह । मैं कहता हूं वही सत्य है, मेरा विचार ही अच्छा, मननीय है तथा मैंने जो प्रस्ताव किया वह पारित होना ही चाहिए जिसके कारण बहुत सारे लड़ाई-झगड़े, मन-मुटाव, तनाव, छींटाकशी हो जाती है। लाभ से लोभ बढ़ता है । दो मासे सोने से पूरा होने वाला कार्य करोड़ से भी पूरा नहीं होता । उपर्युक्त वर्गीकरण के आधार पर तथा अन्य दृष्टियों से प्रश्न व्याकरण के ३० पर्यायवाची नाम बतलाए गए हैं, इनका विस्तार से वर्णन भी उपलब्ध होता है, जो प्रतीकात्मक स्वरूप से परिग्रह शब्द का प्रतिनिधित्व करते हैं। जैसे - १. परिग्रह, २. संचय इत्यादि । ‍ परिग्रह के प्रेरक-परिग्रह के कारणों की सुन्दर ढंग से चर्चा प्रस्तुत की गई है । परिग्रह एक महावृक्ष है । तृष्णा और महाभिलाषा जड़ है क्योंकि प्राप्त पदार्थों की संरक्षण रूप तृष्णा और अप्राप्त की महत्वाकांक्षा पर ही यह परिग्रह वृक्ष टिका हुआ है । यदि ये दोनों नष्ट हो जाएं तो परिग्रह का वृक्ष गिर जाएगा। किसी चितक ने ठीक ही कहा है- 'तस्य परिग्रहो नास्ति यस्येच्छा नास्ति ।' लेकिन मनुष्य के अरमान और उसकी इच्छा की लालसा अवस्था के साथ असीम होती चली जाती है जैसा कि सुन्दर दास ने बहुत ही सटीक लिखा है— 'जो दस बीस पचास भये, सत होई हजार तूं लाख मांगेगी । कोटि अरब, खरब, असंख्य, पृथ्वीपति होये की चाह जगेगी ॥ स्वर्ग पाताल को राज करवे, तृष्णा अधिकी आग लगेगी, सुन्दर एक संतोष बिना ठह, तेरी तो भूख कबुन भगेगी ॥' ३७ कषाय चतुष्टय और मोहराजा इस परिग्रहवृक्ष का महास्कन्ध है । उपलब्ध और अनुपलब्ध पदार्थों के प्रति आसक्ति लोभ है। आसक्ति को ही परिग्रह कहा जाता है। किसी इष्ट का वियोग और अभद्र का संयोग होने पर परस्पर कलह होता है । कलह के साथ क्रोध, अभिमान और छल-कपट का गठबंधन ही है । ये तीनों लड़ाईझगड़े के मूल कारण हैं। जितने भी महाभारत लड़े जाते हैं उनके पीछे मूलभूत प्रेरणा परिग्रह की रहती है । खण्ड १६, अंक १ (जून, ६० ) Jain Education International For Private & Personal Use Only २७ www.jainelibrary.org
SR No.524562
Book TitleTulsi Prajna 1990 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmal Tatia
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages74
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size4 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy