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________________ प्रामाण्य का अर्थ अर्थ का अधिगम प्रमाण से होता है । प्रमाण जिस पदार्थ को जिस रूप में जानता है उसका उसी रूप में प्राप्त होना अर्थात् जाते हुए विषय में व्यभिचार का न होना प्रामाण्य है । प्रामाण्य के दो अर्थ लिए जा सकते हैं - प्रमाकरत्व अथवा प्रमात्व' । प्रथम अर्थ में यह प्रमा की प्राप्तिकर्त्ता साधन का गुण है और चूंकि प्रमाण का लक्षण प्रमा का साधन या प्रमा को देने वाला है, अप्रमा को देने वाला नहीं, अतः सभी प्रमाणों में प्रामाण्य का गुण स्वीकृत हो जाता है । दूसरे अर्थ में यह स्वयं प्रमा का ही गुण होने से प्रत्येक प्रमा रूप ज्ञान में प्रामाण्य तथा अप्रामाण्यरूप ज्ञान में अप्रामाण्य की विद्यमानता सिद्ध होती है । दूसरे शब्दों में, प्रामाण्य के होने से ही प्रमा होता है और उसके अभाव में वह अप्रमा होता है । प्रामाण्य के तत्व प्रमाण सत्य है, इसमें कोई द्वैत नहीं, किन्तु सत्य की कसौटी सबकी एक नहीं है । ज्ञान की सत्यता या प्रामाण्य के नियामक तत्व सबके भिन्न-भिन्न हैं | अबाधितत्व, अप्रसिद्ध अर्थज्ञापन या अपूर्व अर्थ प्रापण, अविसंवादित्व, सफल प्रवृत्तिजनकत्व या प्रवृत्ति सामर्थ्य – ये सत्य की कसौटियां हैं जो भिन्न-भिन्न दार्शनिकों द्वारा स्वीकृत या निराकृत होती रही हैं । प्रामाण्यवाद [] साध्वी योगक्षेमप्रभा प्रभाकर मीमांसक अनुभूति को प्रमा मानते हैं। स्मृति अनुभूति से पृथक् होने से उसे प्रमा नहीं मानते । अतः उनके दर्शन में मुख्य रूप से स्मृति के अतिरिक्त सर्वज्ञान का प्रामाण्य स्वीकृत किया गया है तथा व्यवहार से अविसंवादित्व और प्रवृत्ति से सफलता का भी प्रामाण्य मान्य किया है ।" अविसंवादिता का अर्थ है-अर्थका अन्यथा प्रतिपादन न करना अर्थात् विषय का तद्रूप प्रतिपादन ही अविसंवादित्व है । प्रवृत्ति सफलता से तात्पर्य उस ज्ञान से है – जहां फलदायक परिणामों से प्रामाणिकता का समावेश हो । जैसे— जल ज्ञान का प्रवृत्ति साफल्य तृषा के शांत होने या स्पर्श से उसकी अनुभूति से होगा । सफल प्रवृत्ति जनकत्व या प्रवृत्ति सामर्थ्य शब्द इसके पर्यायवाची ही हैं । कुमारिल ने बोधात्मकता को प्रामाण्य का नियामक माना है । बोधात्मकता अर्थ विषय का बोध रूप है । किन्तु विषय का बोध प्रमा और अप्रमा दोनों में होने से उम्बेक ने बोधात्मकता के साथ अर्थ के अविसंवादित्व को प्रामाण्य के लिए अपेक्षित तुलसी प्रज्ञा १२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524562
Book TitleTulsi Prajna 1990 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmal Tatia
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages74
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size4 MB
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