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________________ माना।" भाट्ट चिन्तामणि में अज्ञात विषयकत्व और अबोधितत्व को प्रामाण्य का मापदण्ड निरूपित किया है।" अज्ञान विषयकत्व यानी अज्ञान को विषयीकृत करना या अपूर्व अर्थ को ग्रहण करना, धारावाहिक ज्ञान को नहीं । अप्रसिद्धार्थख्यापन, अपूर्व अर्थ प्रापण इसके समानार्थक शब्द हैं । अबाधितत्व से तात्पर्य उस ज्ञान से है जो किसी अन्य से बाधित न हो। अन्य ज्ञान से बाधित होने पर ज्ञान का प्रामाण्य नहीं रहता। जैसे geo-centeric अर्थात् पृथ्वी केन्द्र है तथा सूर्य पृथ्वी के चारों और घूमता है का ज्ञान Hilio-centeric ज्ञान से बाधित होने से अप्रमा हो गया । अद्वैत वेदान्ती अबाधितत्व को प्रामाण्य का नियामक मानते हैं। मधुसूदन सरस्वती ने अद्वैत सिद्धि में अर्थ परिच्छेद सामर्थ्य को प्रामाण्य कहा है। यहां अर्थ परिच्छेद सामर्थ्य का अर्थ-विषय का ज्ञान कराने की समर्थता से है । आचार्य रामानुज ने प्रामाण्य के तीन मानदण्ड स्थापित किये हैं ... (१) याथार्तीय अर्थात् ज्ञान का जो भी विषय है ज्ञान उसी को प्रकाशित कर · रहा है। (२) स्वतंत्र अर्थ प्रकाशकत्व अर्थात् ज्ञान की अपने विषय को प्रकाशित करने की स्वतंत्रता है । यहां स्मृति के प्रामाण्य का स्वयमेव निरास हो जाता है क्योंकि वह स्वतंत्र रूप से अर्थ प्रकाशन में समर्थ न होकर पूर्वज्ञान सापेक्ष होती है। (३) सबाधकत्व । विभिन्न दार्शनिकों का मत न्याय और बौद्ध दार्शनिक प्रवृत्ति साफल्य को ही मुख्य रूप से प्रामाण्य की कसौटी मानते हैं। जैन दार्शनिकों ने प्रामाण्य के अलग-अलग मानदण्ड स्वीकार किये हैं । विद्यानंद बाधक प्रमाण के अभाव को प्रामाण्य का नियामक मानते हैं किन्तु अभयदेव इसका निराकरण करते हैं । अकलंक १ अप्रसिद्ध अर्थ ख्यापन को प्रामाण्य की कसौटी मानते हैं किन्तु वादिदेव और हेमचन्द्र इसको निराकृत करते हैं । उपाध्याय यशोविजयजी ने प्रवृत्ति साफल्य और बाधक प्रमाण के अभाव को प्रामाण्य की निकषा माना है । सांख्य दार्शनिकों ने प्रामाण्य का नियामक कोई मानदण्ड अलग से स्वीकार नहीं किया, वे बुद्धि में सत्व गुण की प्रधानता को ही प्रामाण्य मानते हैं । उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि भारतीय दार्शनिक प्रामाण्य के नियामक तत्वों के बारे में एक मत नहीं हैं। जिसका कारण है-उन तत्वों की व्यापकता का सार्वदिक न होना । वैसे संवादी प्रवृत्ति और प्रवृत्ति सामर्थ्य का व्यवहार सर्व-सम्मत है । फिर भी ये प्रामाण्य के मुख्य नियामक नहीं बन सकते क्योंकि प्रमेय की शक्ति में इनकी उपस्थिति अनिवार्यतः अपेक्षित नहीं है । संवादक ज्ञान प्रमेय के अव्यभिचारी ज्ञान की भांति व्यापक नहीं है । जिस तरह प्रत्येक निर्णय में तथ्य के साथ ज्ञान का सांगत्य अपेक्षित होता है, उसी तरह संवादक ज्ञान प्रत्येक निर्णय में अपेक्षित नहीं होता । प्रवृत्ति सामर्थ्य अर्थ सिद्धि का दूसरा रूप है किन्तु उसके साथ भी प्रामाण्य का अविनाभाव नहीं है । इसके बिना भी तथ्य के साथ ज्ञान की संगति होती है । इस प्रकार यह खण्ड १६, अंक १ (जून, ६०) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524562
Book TitleTulsi Prajna 1990 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmal Tatia
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages74
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size4 MB
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