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________________ सिद्धारथ कुल के तिलक, त्रिशलानन्दन, त्रिभुवन-नायक, चरम तीर्थंकर महावीर को मन, वचन व काया के द्वारा प्रणाम करता हूं। उत्तम गोयम गणहरू, सुधर्म जम्ब आद । प्रणम् बे कर जोड़ दें, आंणी मन अहलाद ।।4।। गौतम गणधर, सुधर्मा, जम्बू आदि उत्तम पुरुषों को प्रसन्न-मना, दोनों हाथ जोड़ कर नमस्कार करता हूँ। गणपति भिक्खु महागुणी, भारीमल ऋषराय । जय जश करण सुदीप गणि, प्रणमु हरष सवाय ।।5।। महान् गुणों के धनी, गण के अधिनायक आचार्य भिक्ष, भारीमाल व रायचन्दजी (तेरापंथ के तीन आचार्य) को तथा महाविदेह क्षेत्र में विहरमान आचार्य जय जश करण और दीप (दीप जश) गणी को अत्यंत आल्हाद पूर्वक नमन करता हूं। विधन टले आणंद हुवै, भजन कियां भय जाय । चरण ज्ञान नी वृद्धि ह, गणपति तणे पसाय ।।6।। उक्त आराध्य देवों के भजन करने से विध्न, भय दूर भाग जाते हैं तथा आनन्द की अनुभूति होती है और उनके प्रसाद से ज्ञान, चारित्र की अभिवृद्धि होती है। ज्ञान सिंधु अति है अथग, चरचा विविध सुछांण । मुज विद्या गुरु हेम ऋष, कहूं तास सिर आंण ।।7।। ज्ञान रूपी समुद्र अथाह है, तत्त्व-चर्चा विविध प्रकार की है, उनमें से छान-बीन कर कुछ चर्चा का प्रतिपादन कर रहा हूं। इसके लिए मेरे विद्या-गुरु मुनि श्री हेमराजजी को मैं शीष चढ़ाता हूं। जोग अने लेश्या उभय, किसो भाव कहिवाय । छ द्रव्य नव तत्व माहि कुण, प्रथम ढाल रे मांय ।।8।। योग और लेश्या- कौनसा भाव है तथा छह द्रव्य व नव तत्त्वों में कौनसा द्रव्य व तत्त्व है, यह पहली ढाल में बतलाया गया है। 1. काय-वाङ मनोव्यापारो योगः-शरीर, वचन एवं मन के व्यापार को योग कहते हैं। 2. योग वर्गणान्तर्गत द्रव्य साचिव्यात आत्म परिणामो लेश्या । योग वर्गणा के अन्त र्गत पुद्गलों की सहायता से होने वाले आत्म परिणाम को लेश्या (भाव लेश्या) कहते हैं । भाव लेश्या के योग्यपुद्गलों को द्रव्य लेश्या कहते हैं। कहीं कहीं वर्ण आदि को भी द्रव्य लेश्या कहा है । आगम तथा थोकड़ों में जो देव और नारक में लेश्या का कथन किया गया है, वह प्रायः शारीरिक वर्ण (द्रव्य-लेश्या) की अपेक्षा से है। 3. अवस्था विशेष को भाव कहते हैं:-वे पांच हैं - औदयिक (उदय-अवस्था, निष्पन्न भाव), औपशमिक, क्षायिक क्षायोपशमिक और पारिणामिक । 4. गुणपर्यायाश्रयोद्रव्यम् – गुण और पर्यायों के आश्रय को द्रव्य कहते हैं । वे छह हैं -धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकात, आकाशास्तिकाय, काल, पुद्गलास्तिकाय और जीवास्तिकाय । 5. पारमार्थिक वस्तु को तत्त्व कहते हैं । वे नौ हैं- जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आश्रव संवर, निर्जरा, बन्ध और मोक्ष । खण्ड ४, अक ३-४ २१५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524516
Book TitleTulsi Prajna 1978 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmal Tatia
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1978
Total Pages78
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size5 MB
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