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________________ श्रीमज्जयाचार्य रचित 'झीणी चरचा' (मूल एवं हिन्दी अनुवाद) सम्पादक एवं अनुवादक मुनि नवरत्नमल तेरापंथ के चतुर्थ आचार्य श्री जीतमल जी (जयाचार्य) राजस्थानी भाषा के उच्च कोटि के कवि हुए हैं। उन्होंने अपनी बहुमुखी प्रतिभा के द्वारा अविरल गति से साहित्यिक धारा प्रवाहित की। उनकी सजन-कला, भावाभिव्यक्ति, विषय-प्रतिपादन की शैली अनूठी थी। वे बाल्यकाल (11 वर्ष की अवस्था) से ही रचना करने लग गये। उन्होंने सैद्धांतिक तात्त्विक, न्याय, ऐतिहासिक तथा आख्यान आदि विविध विषयों पर दोहे, छंद व गीतिकाओं के माध्यम से साहित्य का निर्माण किया। भगवती-सूत्र जैसे विशालकाय आगम की सुन्दरसुन्दर राग-रागनियों में पांचसो ढाले' (गीतिकाए) बनाईं, जिसकी श्लोक-संख्या लगभग 60 हजार से अधिक है । उनका समग्र साहित्य लगभग तीन लाख श्लोक-प्रमाण है। उनके द्वारा रचित 'झीणी चरचा' नामक एक लघु कृति है। उसमें उन्होंने भाव, लेश्या, आत्मा, गुणस्थान आदि गहन तत्त्वों को इतने सरस और सरल तरीके से प्रस्तुत किया है कि वह जिज्ञासु पाठक के लिए शीघ्रातिशीघ्र ग्राह्य एवं हृदय-स्पर्शी बन जाता है । इसमें कुल 17 गीतिकाएं हैं। प्रथम गीतिका में इष्ट पुरुषों की स्मृति करके योग व लेश्या पांच भावों में कौन-सा भाव है तथा छह द्रव्य, नव तत्त्वों में कौन 2 सा द्रव्य और तत्त्व है, इस पर सुन्दरतम प्रकाश डाला गया है । दोहा अजर अमर वर अमल सिव, सिद्ध समृद्ध सुचंग । आतमीक सुख विमल धर, प्रणमु आण उमग ।।1।। मैं अजर, अमर, पवित्र, शुभंकर, अनुत्तरगण-ऋद्धि--संपन्न एवं आत्मा के निर्मल सुख में रमण करने वाले सिद्ध भगवान को हर्ष सहित नमस्कार करता हूं। नमो नमो नाभेय नित, मरूदेवी महा मात। आदिनाथ आदेसरू, वसुधा मांहि विख्यात ।।2।। नाभि राजा व मरूदेवी माता के अगजात, पृथ्वी पर सुप्रसिद्ध, आदिम जिन ऋषभदेव को बार-बार बन्दना करता हूं। सिद्धारथ कूल तिलक सम, तिसलादे अंगजात। प्रणमु मन वच काय कर, महावीर जगनाथ ।।3।। तुलसी प्रज्ञा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524516
Book TitleTulsi Prajna 1978 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmal Tatia
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1978
Total Pages78
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size5 MB
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