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________________ देव ने न्यायविनिश्चय में कहा है कि वस्तुत: एक असिद्ध ही हेत्वाभास है। किन्तु अन्यथानुपपत्ति का अभाव अनेक प्रकार से होता है इसलिए असिद्ध, विरुद्ध, संदिग्ध और अकिञ्चिस्कर के भेद से चार हेत्वाभास भी हो सकते हैं। एक स्थल में तो उन्होंने विरुद्ध आदि को अकिञ्चित्कर का ही विस्तार कहा है। जिस हेतु की सत्ता का अभाव हो अथवा जिसका निश्चय न हो उसे असिद्ध हेत्वाभास कहते हैं। इसके दो भेद हैं-स्वरूपासिद्ध और सन्दिग्धासिद्ध । जैसे, 'अनित्यः शब्दःश्चाक्षुषवात्' यहाँ चाक्षुषत्व हेतु स्वरूपासिद्ध है। क्योंकि शब्द चाक्षुष न होकर श्रावण है । साध्य से विपरीत पदार्थ के साथ जिसका अविनाभाव निश्चित हो उसे विरुद्ध हेत्वाभास कहते हैं। जैसे नित्यः शब्दः कतकत्वात' यहाँ कृतकत्व हेतु विरुद्ध है। क्योंकि उसका अविनाभाव नित्य के साथ न होकर अनित्य के साथ है । जो हेतु पक्ष, सपक्ष और विपक्ष तीनों में रहता है उसे अनेकान्तिक कहते हैं। जैसे “अनित्यः शब्दः प्रमेयत्वात्' यहाँ प्रमेयत्व हेतु विपक्ष (नित्य आकाश) में भी रहता है। जिस हेतु का साध्य सिद्ध हो अथवा प्रत्यक्षादि से बाधित हो उसे अकिञ्चित्कर कहते हैं। इसके दो भेद हैं सिद्ध साधन और बाधित विषय । जिस हेतु का साध्य सिद्ध होता है वह सिद्ध साधन है । जैसे 'श्रावणः शब्दः शब्दत्वात्' वहाँ शब्दत्व हेतु सिद्धसाधन है । क्योंकि शब्द में श्रावणत्व सब को सिद्ध है । बाधित के पांच भेद हैं-प्रत्यक्षबाधित, अनुमानबाधित, आगमबाधित, लोकबाधित और स्ववचनबाधित । 'अनुष्णोऽग्निद्रव्यत्वाज्जलवत्' यहां द्रव्यत्व हेतु का साध्य (अग्नि में अनुष्णत्व) प्रत्यक्षबाधित है। क्योंकि अग्नि में उष्णता प्रत्यक्ष से सिद्ध है। 'प्रेत्यासुखप्रदो धर्मः पुरुषाश्रयत्वादधर्मवत्' यहां पुरुषाश्रयत्व हेतु का साध्य (धर्म परलोक मे दुःख देने वाला है) आगम बाधित है । क्योंकि आगम में धर्म को परलोक में सुख देने वाला बतलाया गया है । 'शुचिनरशिरः कपालं प्राण्यङ्गत्वाच्छंखशुक्तिवत्' । यहां प्राण्यङ्गत्व हेतु का साध्य (नर के शिर के कपाल की पवित्रता) लोक बाधित है। क्योंकि लोक में उसे अपवित्र बतलाया गया है। "माता में वन्ध्या पुरुषसंयोगेप्यगर्भवत्वात् प्रसिद्धवन्हयावत्' यहां पुरुष संयोगेऽप्यगर्भवत्व हेतु का साध्य (अपनी माता का वन्ध्यापन) स्ववचनबाधित है। क्योंकि यदि उसकी माता वन्ध्या होती, तो वह कहां से उत्पन्न होता। इस प्रकार जैनन्याय के अनुसार अनुमान के विषय में कुछ विशिष्ट बातों पर यहां संक्षेप में प्रकाश डाला गया है । तर्क का प्रामाण्य पृष्ठभूमि : जैनागम में तर्क के लिए चिन्ता और ऊहा शब्द मिलते हैं । सूत्रकार उमास्वाति ने मतिज्ञान के प्रकरण में तर्क के लिए चिन्ता शब्द का प्रयोग किया है। षट्खण्डागम में भी 1. अन्यथासंभवाभावात् स बहुधा स्मृतः। _ विरुद्धासिद्धसन्दिग्धैरकिञ्चित्कर विस्तरैः ॥ न्यायविनिश्चय, 21265 2. अकिञ्चित्कारकान् सर्वान् तान् वयं संगिरामहे । -न्यायविनिश्चय, 21371 खण्ड ४, अंक ३-४ २०६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524516
Book TitleTulsi Prajna 1978 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmal Tatia
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1978
Total Pages78
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size5 MB
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