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बौद्धदर्शन के अनुसार केवल हेतु को ही अनुमान का एक मात्र अंग माना गया है। जैसा कि आचार्य धर्मकीर्ति ने प्रमाणवातिक में कहा है
तभावहेतुभावौहि दृष्टान्ते तदवेदिनः।
ख्यापेते विदुषां वाच्यो हेतुरेव हि केवलः ॥1 अर्थात् जो लोग साध्य और साधन में तादात्म्य और तदुत्पत्ति सम्बन्ध को नहीं जानते हैं उनके लिए दृष्टान्त में तादात्म्य और तदुत्पत्ति सम्बन्ध बतलाया जाता है । किन्तु उनमें सम्बन्ध को जानने वाले विद्वानों के लिए तो केवल हेतु का ही कथन करना चाहिए।
मोक्षाकर गुप्त आदि कुछ अन्य बौद्ध दार्शनिकों ने हेतु और दृष्टान्त ये दो अवयव माने हैं, किन्तु प्रतिज्ञा, उपनय और निगमन को किसी ने नहीं माना।
किन्तु जैसे न्याय में स्पष्ट बतलाया गया है कि विजिगीषु कथा अथवा वाद में प्रतिज्ञा और हेतु ये दो ही अवयव उपकारक होते हैं, उदाहरणादि की वहां कोई आवश्यकता नहीं है । क्योंकि वाद विद्वान् व्यक्तियों में ही होता है । यह अवश्य स्वीकार किया गया है कि वीतराग कथा में प्रतिपाद्य (शिष्य) के आशय के अनुसार उदाहणादि अन्य तीन अवयवों का भी प्रयोग किया जा सकता है। पक्ष प्रयोग की आवश्यकता
. बौद्ध परार्थानुमान में पक्ष प्रयोग को अनावश्यक मानते हैं। उनका कहना है कि हेतु प्रयोग से ही पक्ष गम्यमान हो जाता है । इस विषय में जैन दार्शनिकों का कहना है कि यदि पक्ष (पर्वत) का प्रयोग न किया जायेगा तो यह सन्देह बना रहेगा कि साध्यधर्म (वह्नि) का आधार क्या है, पर्वत या दूसरा कोई स्थल । अतः इस सन्देह को दूर करने के लिए गम्यमान भी पक्ष का प्रयोग अत्यावश्यक है। इस विषय में आचार्य माणिक्यनन्दि ने कहा है कि साध्यधर्म के आधार में सन्देह को दूर करने के लिए तथा साध्यधर्म का आधार बतलाने के लिए पक्ष का प्रयोग अवश्य करना चाहिए। हेतु के रूप
_बौद्धों ने हेतु के तीन रूप माने हैं—पक्ष धर्मत्व, सपक्षसत्त्व और विपक्ष व्यावृत्ति। इन्हीं तीन रूपों के कारण हेतु में असिद्ध आदि तीन दोषों का निराकरण हो जाता है।
1. प्रमाणवार्तिक, 3127 2. एतद्द्वयमेवानुमानाङ्गनोदाहरणम् ।-परीक्षामुख सूत्र, 3137 3. बालव्युत्पत्यथं तत्त्रयोपगमे शास्त्र एवासो न वादेऽनुपयोगात् ।
-परीक्षामुख सूत्र, 3146 4. साध्यधर्माधारसन्देहापनोदाय गम्यमानस्यापि पक्षस्य वचनम् ।
-परीक्षामुख सूत्र, 3134 तेन पक्षस्तदाधारसूचनायोक्तः ।
-परीक्षामुख सूत्र, 3198 5. हेतोस्त्रिष्वपि रूपेषु निश्चयस्तेन वणितः।
असिद्धविपरीतार्थव्यभिचारिविपक्षतः॥ -प्रमाणवातिक, 3115
खण्ड ४, अंक ३-४
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