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दिन का अशौच रखें । द्वितीय दिन अस्थि-निक्षेप और तृतीय दिन तर्पण कर चतुर्थ दिन श्राद्ध करें "112
(3) आदि पुराण में कहा है : “अचिकित्स्य महारोगों से पीड़ित मनुष्य यदि दीप्त अग्नि में प्रवेश कर, अथवा अनशन कर अथवा अगाध जल-राशि में डूबकर अथवा पर्वत से गिर कर अथवा हिमालय की ओर महापथ यात्रा कर अथवा प्रयाग में वट की शाखा से फांसी लगा कर देह-त्याग करता है, तो इस तरह अपने आप देह-विनाश करने वाला महामति आत्मघाती उस आत्मघात के दोष का भागी नहीं होता, उत्तम लोकों को प्राप्त करता है। वह महापापों का क्षय कर स्वर्ग में दिव्य भोगों को भोगता है। सभी प्राणियों, सभी वर्गों, सभी मनुष्यों और स्त्रियों को सभी काल में उक्त प्रकार के मरणों का अधिकार प्राप्त है। 118
(4) ब्रह्मगर्भ में कहा है- "महाव्याधि से उपपीड़ित होने के कारण जो जीवित नहीं रह सकता अथवा धर्म का अनुष्ठान नहीं कर सकता वह अग्नि अथवा जल में प्रवेश करे अथवा महायात्रा करे । इससे वह दोष का भागी नहीं होता। 114
112. वृद्धः शौचस्मृतेर्लुप्त: प्रत्याख्यातभिषक् क्रियः ।
आत्मानं घातयेद्यस्तु भृग्वग्न्यनशनाम्बुभि : ॥ 218 ।। तस्य त्रिरात्रमशौचं द्वितीये त्वस्थिसंचयम् । तृतीये तूदकं कृत्वा चतुर्थे श्राद्धमाचरेत् ।। 119 ।। (शोचस्मृते: शौचक्रियालुप्त · । माधव मनु0 5/84 के मेधातिथि भाष्य में उद्धत । अपरार्क के अनुसार ये अगिरा के
श्लोक हैं । माधव के अनुसार शातातप के ।) 113. दुश्चिकित्सर्महारोगै : पीडितस्तु पुमान्यदि ।
प्रविशेज्ज्वलनं दीप्तं करोत्यनशनं तथा ।। अगाधतोयराशिं वा भृगप्रपतनं तथा । गच्छेन्महापथ वाऽपि तुषारगिरिमादरात् ।। प्रयागवटशाखानां देहत्यागं करोति वा। स्वयं देहविनाशस्य काले प्राप्ते महामति : ॥ उत्तमान्प्राप्नुयाल्लोकान्न चात्मघाती भवेत्क्वचित् । महापापक्षयात्स्वर्गे दिव्यान्भोगान्समश्नुते ।। एतेषामधिकारस्तु सर्वेषां सर्वजन्तुषु । नराणामथ नारीणां सर्ववर्णेषु सर्वदा ।।
(याज्ञवल्क्य 3/6 की अपरार्क टीका में उद्धृत)। 114 (क). योजीवितु न शक्नोति महाव्याध्युपपीडित : । सोऽग्न्युदकमहायात्रां कुर्वन्नामुत्र दुष्यति ।।
(याज्ञवल्क्य 1/253 की अपरार्क टीका में उद्धत)।
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तुलसी प्रज्ञा
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