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(10) जो संन्यासी आत्मघात का निश्चय कर उससे दूर होते थे वे दोषी माने जाते थे । उनकी शुद्धि के बारे में अत्रि (212-213) कहते हैं :
जो प्रव्रजित ब्राह्मण पुन: गृहस्थ होना चाहे और प्रव्रज्या को छोड़ अथवा अग्नियोग, जल-प्रवेश अथवा अनशन द्वारा देहत्याग करने का निश्चय कर गृहीत का त्याग करे उन सब ब्राह्मणों के लिए तीन प्राजापत्य अथवा एक चान्द्रायण विहित है। उक्त अवस्था में जातकर्मादि सब संस्करण पुन: कर्त्तव्य हैं।'' 10°क
10 : गृहस्थ और आत्मघात
___ वानप्रस्थ के लिए ही नहीं गृहस्थ के लिए भी अचिकित्स्य व्याधि आदि के समय उक्त मरण-विधियों से आत्म-घात करने का विधान मिलता है :
(1) वृद्ध गार्ग्य कहने हैं : व्याधि के कारण जिनकी चेष्टाए लुप्त हो चुकी हों110 उन गृहस्थों के लिए महाप्रस्थान-गमन अग्नि-प्रवेश, गिरि-पतन आदि का विधान है । व्यर्थ जीने की इच्छा न कर वे इनका अनुष्ठान करें।"111
(2) अत्रि स्मृति में कहा है : " जो वृद्ध हो गया हो, शौच-शून्य हो गया हो जिसकी स्मृति लुप्त हो गयी हो, चिकित्सक ने जिसकी चिकित्सा परित्यक्त कर दी हो, यदि ऐसा व्यक्ति पर्वत की चोटी से गिरकर अथवा अग्नि में गिरकर अथवा जल में प्रवेशकर अथवा अनशन द्वारा आत्महत्या करे तो उसके पुत्रादि केवल तीन
109. नारद ने पाण्डवों को बताया कि वृतराष्ट्र का दाह वृथा अग्नि से नहीं हुआ है । वे वायुभक्षी धृतराष्ट्र घने जंगल में प्रवेश करने लगे तब याजकों द्वारा इष्टि करा कर तीनों अग्नियों को वहीं त्याग दिया। निर्जन वन में छोड़ी हुई वह अग्नि सर्वत्र फैल गयी। राजा धृतराष्ट्र इसी अपनी अग्नि से दग्ध हुए और परम उत्तम गति को प्रात्त हुए हैं । तुम्हें जाकर उन तीनों को जलांजलि देनी चाहिए (39/117/9) 109क. ये प्रव्रजिता विप्रा: प्रव्रज्याग्निजलादितः।
प्रनाशकानिवर्तन्ते चिकीर्षन्ति गृहस्थितिम् ॥ धारयेत्रीणि कृच्छाणि चान्द्रायणमथापि वा।
जातकर्मादिकं प्रोक्तं पुनः सस्कारमर्हति ॥ 110. “लुप्तचेष्ट" श्चोच्यते य : शौचादिष्वसमर्थ : सांध्योपासनादिषु च। 111. व्याधिभिलुप्तचेष्टानां गृहस्थानां विधीयते ।
महाप्रस्थानगमनं ज्वलनाम्बुप्रवेशनम् ।। भृगुप्रपतनं चैव वृथा नेच्छेत्तु जीवितम् ॥
(याज्ञवल्क्य स्मृति 3/6 की अपरार्क टीका में उद्धत)।
खं. ३ अं. २-३
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