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________________ (5) विवस्वत ने कहा है-" जो वृद्ध है,, जो सर्व इन्द्रियों के विषयों से विरक्त हो चुका, जो कृतकृत्य है, जो व्याधि से ग्रस्त है, उसका इच्छापूर्वक तीर्थ में मरना तप से बढ़ कर है ।'' 115 (6) गार्य कहते हैं-" जो आचार-पालन में असमर्थ हो जाय वह महाप्रस्थान गमन, अग्नि-प्रवेश, जल-प्रवेश कर अथवा गिरि-पतन कर प्राण-त्याग करे । व्यर्थ जीने की इच्छा न रखे ।" 118 (7) विवस्वत् कहते हैं :" सभी इन्द्रियों के विषयों से विरक्त एवं स्वयं के कार्यों को करने में अक्षम व्यक्ति के लिए तथा प्रायश्चित्त रूप में अग्नि-पात और महाप्रस्थान का विधान किया है ।" 116 क 11 :-तीर्थस्थान और प्रात्मघाती संसार से मुक्ति पाने की इच्छा से प्रयाग, सरस्वती और काशी आदि तीर्थों में जल-प्रवेश कर अथवा अन्य विधियों से मरण प्राप्त करने का विधान मिलता है। _1. महाभारत वनपर्व में कहा है : 'वेद-वचन से या लोक-वचन से प्रयाग में मरने का विचार नहीं त्यागना चाहिए ।'117 'वेद-वचन' द्वारा निम्नलिखित वचनों की ओर संकेत है : (1) असुर्या नाम ते लोका अन्धेन तमसावृताः। तास ते प्रेत्याभिगच्छन्ति ये केचात्महनो जनाः ।। (ख). योऽनुष्ठातु न शक्नोति महाव्याधिप्रपीडित : । सोऽग्निं वारि महायात्रां कुर्वन्नामुत्र दुष्यति । (याज्ञवल्क्य 3/6 की अपरार्क टीका में उद्धृत) 115. सर्वेन्द्रियविरक्तस्य वृद्धस्य कृतकर्मण : । ___व्याधितस्येच्छया तीर्थे मरणं तपसोधिकम् ॥ (याज्ञवल्क्य 1/253 की अपरार्क टीका में उद्धत)। 116. महाप्रस्थानगमनं ज्वलनाम्बुप्रवेशनम् । भृगुप्रपतनं चैव वृथा नेच्छेत्तु जीवितुम् ॥ (याज्ञवल्क्य 1/253 की अपरार्क टीका में उद्धृत)। 116क. सर्वेन्द्रियविरक्तस्य स्वव्यापाराक्षमस्य च । प्रायश्चित्तमनुज्ञातमग्निपातो महापथ : ।। (याज्ञ० 3/6 की अपरार्क टीका में उद्धत)। 117 न वेदवचनात् तात न लोकवचनादपि । मतिरुत्क्रमणीया ते प्रयागमरणं प्रति ।। (85/83) खं. ३ अं. २-३ ८६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524510
Book TitleTulsi Prajna 1977 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya, Nathmal Tatia, Dayanand Bhargav
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1977
Total Pages198
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size9 MB
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