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आपस्तम्बीय धर्मसूत्र में पुनः कहा है : "गुरुतल्पगामी प्रज्वलित आग में प्रवेश कर दोनों ओर से जलाकर अपने को जला डाले । " 82
( 7 ) महाभारत के अनुसार कृतघ्न के लिए आत्मघात विहित लगता है । वहाँ कथानक है --
वत्सनाभ महर्षि के मन में विचार उत्पन्न हुआ : "मैं प्राण त्याग के सिवा कृतघ्नों के उद्धार का दूसरा कोई उपाय किसी तरह नहीं देख पाता । घर्मज्ञ पुरुषों का कथन भी ऐसा ही है । पिता-माता का भरण-पोषण न कर के तथा गुरु-दक्षिणा न देकर मैं कृतघ्न-भाव को प्राप्त हो गया हूं । इस कृतघ्नता का प्रायश्चित्त है स्वेच्छा से मृत्यु को वरण कर लेना । अपने कृतघ्न जीवन की आकांक्षा और प्रायश्चित्त की उपेक्षा पर भारी उपपातक भी बढ़ता रहेगा। अत: मैं प्रायश्चित्त के लिए अपने प्राणों का त्याग करूँगा ।" ऐसा विचार कर वे अनासक्त चित्त से मेरुपर्वत के शिखर पर जा कर प्रायश्चित्त करने की इच्छा से अपने शरीर को त्याग देने के लिए उद्यत हो गए । इसी समय धर्म ने आ कर उनका हाथ पकड़ लिया और बोले : "तुम्हारे इस आसक्तिरहित आत्मत्याग के विचार से मैं बहुत संतुष्ट हूं । तुम प्राणत्याग के संकल्प से निवृत्त हो जाओ क्योंकि तुम शाश्वत आत्मा हो ।”82 क
9 : वानप्रस्थ श्रौर श्रात्मघात
असाध्य रोग होने पर अथवा विहित अनुष्ठान करने में असमर्थ होजाने पर वानप्रस्थ के लिए महाप्रस्थान अथवा गिरि-पात आदि अन्य विधियों द्वारा आत्मघात करने का विधान हिन्दूशास्त्रों में देखा जाता है :
82.
गुरुतल्पगामी तु सुषिरां सूमिं प्रविश्योभयत आदीप्याभिदहेदात्मानम् ।
11/10/28/151
82. महाभारत अनुशासन पर्व अ० 12 का उपाख्यान : निष्कृति नैव पश्यामि कृतघ्नानां कथंचन । ऋते प्राणपरित्याग धर्मज्ञान वचो यथा ॥ अकृत्वा भरणं पित्रोरदत्वा गुरुदक्षिणाम् । कृतघ्नानां व सम्प्राप्य मरणान्ता च निष्कृतिः । प्राकांख्यामुपेक्षायां चोपपातकमुत्तमम् ॥ तस्मात् प्राणान् परित्यक्ष्ये प्रायश्चितार्थमित्युत ।। समेरुशिखरं गत्वा निस्संगेनान्तरात्मना । प्रायश्चित्तं कर्तुकामः शरीरं त्यक्तुमुद्यतः ॥ निगृहीतश्च धर्मात्मा हस्ते धर्मेण धर्मवित् । वत्सनाभ महाप्राज्ञ बहुवर्षशतायुष: । परितुष्टोऽस्मि त्यागेन नि:संगेन तथाऽऽत्मनः । । निर्वर्तस्व महाप्राज्ञ भूतात्मा ह्यसि शाश्वतः ॥
खं. ३ नं. २-३
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