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(1) मनुस्मृति में कहा है-(कोई ऐसा रोग हो जाय जिसकी चिकित्सा ही नहीं होती उस अवस्था में) वानप्रस्थ ईशान दिशा की ओर मुंह करके योगनिष्ठ होकर जल, वायु पर रहता हुआ शरीर छूट जाने तक सरलगति से बराबर गमन करता रहे।"83
टीकाकार कुल्लूक भट्ट कहते हैं- इसको महाप्रस्थान कहा जाता है । यह मरण शास्त्र-विहित है । "न पुरायुषः स्वःकामी प्रेयात्" -~-इस श्रुतिवाक्य से इसका विरोध नहीं है । "स्व:कामी" के प्रयोग द्वारा अवैध मरण का ही निषेध किया गया है । ऐसे शास्त्रीय मरण का नहीं ।'84
(2) याज्ञवल्क्य इसका समर्थन करते हैं--(जब वानप्रस्थ समस्त धर्माचरण में अशक्त हो जाय तब) वायु-भक्षण करता हुमा ईशान दिशा की ओर मुखकर प्रस्थान करे और जबतक शरीर-पात न हो अकुटिलगति से गमन करता रहे ।'85
(3) आदिपुराण में कहा है :" सष्व और धर्म का प्राश्रय लेकर हिमालय की ओर महाप्रस्थान यात्रा करनी चाहिए । महाप्रस्थान शीघ्र ही स्वर्ग की प्राप्ति कराता है।"86
(4) महाभारत में महाप्रस्थानिक पर्व में युधिष्ठिर आदि पाण्डवों ने किस प्रकार महाप्रस्थान किया था, इसका वर्णन है । जब युधिष्ठिर ने महाप्रस्थान का निश्चय किया तब अर्जुनादि सभी भाइयों ने इसका समर्थन कर उनका साथ दिया था (1/2/4,5) प्रजा के अनुरोध को न मान उन्होंने महाप्रस्थान का ही निश्चय रखा (1/18)। सब पाण्डवों ने वल्कल-वस्त्र धारण किए (1/20,21)87 | फिर ब्राह्मणों से विधिपूर्वक उत्सर्ग-कालिक इष्टि करवाकर अग्नियों को जल में विसर्जन कर महायात्रा के लिए प्रस्थित हुए (1/22)88 । सब भाइयों को इस महायात्रा से महान् हर्ष हुआ (1/23)।
83. अपराजितां वास्थाय वजेद्दिशमजिह्मगः ।
आनिपाताच्छरीस्य युक्ता वार्यनिलाशनः ।।6/31।। 84. देखिए पा० टि० 171 85. वायुभक्षः प्रागुदीची गच्छेद्वाऽऽ वष्र्मसंक्षयात् ॥3/5511 86. महाप्रस्थानयात्रा नं कर्तव्या तुहिनोपरि । आश्रित्य सत्त्वं धैर्य च सद्य: स्वर्गप्रदा च सा ॥
__ (अपरार्क द्वारा पृ० 879 पर उद्धत) 87. उत्सृज्याभरणान्यंगाज्जगृहे वल्कलान्युत ।
भीमार्जुनयमाश्चैव द्रौपदी च यशस्विनी ।। तथैव जगृहः सर्वे वल्कलानि नराधिप ।
विधिवत् कारयित्वेष्टिं नैष्ठिकी भरतर्षभ ।। 88. समुत्सृज्याप्सु सर्वेऽग्नीन् प्रतस्थुर्नरपुंगवाः ।
तत: प्ररुरुदुः सर्वाः स्त्रियो दृष्ट्वा नरोत्तमान् ॥
तुलसी प्रज्ञा
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