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2. याज्ञवल्क्य का विधान है:
( 1 ) "युद्ध - स्थल में उभय पक्ष की ओर से अस्त्र- निक्षेप हो रहे हों, वहां लक्ष्य होकर अस्त्राघात से मृत्यु प्राप्त करने पर ब्रह ्म महत्या करनेवाला उस पाप से मुक्ति - लाभ करता है ।" 72
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(2) “सुरा, जल, घृत, गोमूत्र, दूध – इनमें से किसी को अग्नि पर तप्त कर अग्निवर्ण कर उसे पी मृत्यु प्राप्त करने पर मद्यप सुरा पीने के पाप से शुद्धिलाभ करता है । " 23
( 3 ) गौतम स्मृति कहती है- “ब्राह्मणघातक अपने शरीर को बिना किसी रूप से ढके तीन बार अग्नि में प्रवेश करे अथवा युद्धस्थल में अपने को शस्त्रधारी पुरुष का लक्ष्य बनाये । " 24
( 4 ) वशिष्ठ स्मृति में लिखा है:
(1) "गुरुपत्नी- गामी पुरुष अण्डकोष एवं लिंग का छेदन कर उन्हें अंजलि में घर कर दक्षिण की ओर चलता जाय। जहां गतिरोध हो वहीं शरीर-पात तक रहे । अथवा अनाहार रहे, घी से शरीर को सींच कर उत्तप्त लोह - प्रतिमा का श्रालिंगन करे । इस प्रकार मृत्यु होने से वह पापमुक्त होता है ।" 25
(2) "आचार्य पत्नी, पुत्रवधू, शिष्यपत्नी प्रादि के साथ गमन करने वाले के लिए भी यही प्रायश्चित है । " 76
131 "बार-बार मद्यपान करने पर द्विज अग्नि के समान तप्त उसी मद्य का पान करे । उससे दग्धकण्ठ हो मरण प्राप्त होने से उसकी शुद्धि होती है ।" 77 181 "राजा के लिए अथवा ब्राह्मण के लिए संग्रामाभिमुख हो अपना घात करे । इससे प्राण त्याग हो या नहीं हो वह पवित्र होता है । " 78
72. संग्रामे वा हतो लक्ष्यभूतः शुद्धिमवाप्नुयात् ।
मृतकल्पः प्रहारार्तो जीवन्नपि विशुद्धयति ॥ 3/248 ।। 73. सुराम्बुघृतगोमूत्रपयसामग्सिंनिभम् ।
सुरापोऽन्यतमं पीत्वा मरणाच्छुद्धिमृच्छति ॥ 3 / 253 ।।
74. प्रायश्चित्तमग्नौ शक्तिब्रह्मघ्नस्त्रिरवच्छादितस्य लक्ष्यं वा स्याज्जन्ये शस्त्रभृताम् ।
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75. गुरुतल्पगः सवृषण शिश्नमुत्कृत्याञ्जलावाधाय दक्षिणामुखो गच्छेत् ।
यत्रेव प्रतिहन्यात्तत्र तिष्ठेदाप्रलयम् । निष्कालको वा घृताभ्यक्तस्तप्तां सूम परिष्वजेन्मरणात्पूतो भवतीति विज्ञायते । (20/13-14)
76. आचार्य - पुत्र -शिष्य भार्यासु चैवम् । ( 20 / 15)
77. अभ्यासे तु सुराया अग्निवर्णां तां द्विजः (पिबन्मरणात्पूतो भवतीति ) । 20/22 1 78. राजार्थं ब्राह्मणार्थं वा संग्रामेऽभिमुखात्मानं घातयेत् । त्रिरजितो वाऽपराद्धः पूतो भवतीति विज्ञायते हि । 20/27-29
खं. ३ अं. २-३
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