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“विधि को छोड़कर जो आत्म-त्याग करता है उसी का सद्य शौच होता है ।"66
यह छठा अध्याहार है मरण का अविहित-अशास्त्रीय होना। अतः प्रकरण चार और पांच के सारे कथन उपयुक्त सीमाओं से प्राबद्ध हैं।
8 : प्रायश्चित और प्रात्मघात
हिन्दूशास्त्रों में आत्म शुद्धि की दृष्टि से पाप कृत्यों के प्रायश्चित स्वरूप विविध आत्मघात का विधान मिलता है। नीचे के उद्धरण इस विषय में यथेष्ट प्रकाश डालेंगे:
1. मनु ने कहा है:
(1) ब्रह्मघाती अपनी इच्छा से अपने को जानकर शस्त्रधारियों के प्रहार क लक्ष्य बनाये अथवा प्रज्वलित अग्नि में सिर नीचा कर अपने को तीन बार झोंके ।"67
(2) ब्राह्मण मोह से मदिरा पीकर उस पाप की शान्ति के लिए अग्नि के वर्ण की तप्त मदिरा पान करे, उससे शरीर दग्ध होने पर वह पाप से मुक्त होता है । अथवा गोमूत्र, जल, गाय का दूध, गाय का घत और गाय के गोबर का रस, इनमें से किसी एक को आग के समान लाल करके तब तक पीए जब तक मर न जाय ।
(3) "गुरुपत्नी में गमन करनेवाला अपने पाप की ख्याति करके लोहे की तप्त शय्या पर सोवे या लोहे की स्त्री-प्रतिमा बनाकर उसे आग में लाल कर अच्छी तरह उसका आलिंगन करे, इस प्रकार मृत्यु होने से वह शुद्ध होता है । अथवा स्वयं अपने लिंग और अण्डकोश को काटकर अंजलि में ले, जबतक देहपात न हो सीधे दक्षिण-पश्चिम के कोण में दौड़ता हुआ जाय । 71
66. विधिमन्तरेणात्मत्यागकारिणां ये सम्बन्धिनः सपिण्डाः तेषाम् अन्वक्षम् । 67. लक्ष्यं शस्त्रभृतां वा स्याद्विदुषामिच्छयात्मनः ।
प्रास्येदात्मानमग्नौ वा समिद्धे त्रिरवाशिराः ॥ 11/73।। 68. सुरां पीत्वा द्विजो मोहादग्निवर्णा सुरां पिबेत् ।।
तया स काये निर्दग्धे मुच्यते किल्बिषात्ततः ।। 11/90।। गोमूत्रमग्निवर्ण वा पिबेदुदकमेव वा ।
पयो घृतं वामरणाद्दोशकृद्रसमेव वा ।। 11/91।। 70. गुरुतल्प्येभिभाष्यनस्तप्ते स्वप्यादयोमये ।
सूमी ज्वलन्तीमाश्लिष्येन्मृत्युना स विशुद्धयति ।। 103 ।। 71. स्वयं वा शिश्नवृषणावुत्कृत्याधाय वांजलो।
नैऋतींदिशमातिष्ठेदानिपातादजिह्मगः ॥ 11/104 ।।
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तुलसी प्रज्ञा
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