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(1) पराशर स्मृति (41-3) में कहा है : “जो स्त्री या पुरुष अतिमान, अतिक्रोध, स्नेह अथवा भय के कारण फांसी लगा लेता है, वह साठ हजार वर्षों तक पूय-शोणित से पूर्ण घोर अन्धकारमय नरक में गिरता है। इस तरह मरनेवाले का अग्नि-संस्कार न करे, उसे जलांजलि न दे, उसका अशौच न रखे, उसके लिए अश्र - पात न करे ।"44
पराशर के उपर्युक्त अभिमत से पहला अध्याहार यह निकलता है कि जहां आत्महत्या क्रोध आदि के आवेग से हुई हो वहां अशौच आदि निषिद्ध हैं।
ब्रह्मपुराण में कहा है : “जो क्रोधवश प्रायः महाप्रस्थान, विष, अग्नि, शस्त्र, फांसी, जल अथवा गिरि-वृक्ष पतन से अपनी हत्या करते हैं उनका दाह नहीं करना चाहिए, अश्रुपात नहीं करना चाहिए, उन्हें पिण्ड नहीं देना चाहिए और न उनकी श्राद्धक्रिया करनी चाहिए 145
इस कथन से भी पहले अध्याहार का समर्थन होता है ।
(2) याज्ञवल्क्य 3/15446 की मिताक्षरा टीका में कहा है-"विप्लववशात्कृतप्रयत्नो भवेत्"--अर्थात् जो विवेकहीन व्यक्ति शोक, दुःखादि से अभिभूत होता है वही आत्महत्या के लिए तैयार होता है । इस तरह यहां विप्लवोत्पन्न आत्महत्या को दोषरूप अकार्य कहा है।
___अतः दूसरा अध्याहार विप्लव-शोक, दुःखादि हैं । अर्थात् जिसकी आत्महत्या इन कारणों से हुई है उसकी उदक-क्रिया आदि निषिद्ध समझनी चाहिए। .
(3) आपस्तम्ब के कथन की व्याख्या करते हुए अपरार्क ने कहा है-"स्वयं घात करता है"- इसका अर्थ है राग से प्रवृत हो घात करता है। शास्त्र-विधि से प्रेरित होकर नहीं।"48 |
44. अतिमानादतिक्रोधात्स्नेहाद्वा यदि वा भयात् ।
उद्बध्नीयात्स्त्री पुमान्वा गतिरेषा विधीयते । पूयशोणितसंपूर्णे अन्धे तमसि मज्जति । षष्टि वर्षसहस्राणि नरकं प्रतिपद्यते ।
नाशौच नोदकं नाग्नि नाश्रुपातंच कारयेत् । 45. क्रोधात्प्रायं विषं वह्निः शस्त्रमुदबन्धनं जलम् ।
गिरिवक्ष प्रपातं च ये कुर्वन्ति नराधमाः । पतितानां दाहः स्यान्न च स्यादस्थिसंचयः न चाश्रुपातः पिण्डो वा कार्या श्राद्धक्रिया न च ।
(गौतम 14-11 की हरदत्त टीका से)। 46. ज्ञेयज्ञे प्रकृती चैव विकारे चाविशेषवान् । - अनाशकानलाघातजलप्रपतनोद्यमी। 47. देखिए टि. सं.31 (ख) 48. स्वयं ग्रहणाद्रागतः प्रवृत्तो न विधित इति गम्यते ।
खं. ३ अं. २-३
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