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भवभूति ने उत्तर रामचरित में अपने पात्र जनक से उक्त उद्गार निकलवाये हैं, उससे पता चलता है कि ईशावास्योपनिषद् के उक्त मन्त्र के “आत्महनो जनाः" का अर्थ से वे जल, अग्नि आदि द्वारा आत्मघात करने वाले जन-ऐसा मानते रहे।
वाल्मीकि रामायण में भी इसे आत्मघात का निषेधक वेद-वाक्य माना है 119
उक्त मन्त्र की व्याख्या करते हुए शांकरभाष्य में कहा है : “जो कोई आत्मा का घात करते हैं वे आत्मघाती हैं । वे कौन हैं ? जो अज्ञानी हैं । अविद्या रूपी दोष के कारण अपनी विद्यमान आत्मा का तिरस्कार करते रहने से प्राकृत अज्ञानी आत्मघाती कहे गए हैं । 20
__ इस भाष्य के अनुसार यहां “आत्महनो जनाः” का अर्थ “शस्त्र, जल, अग्नि द्वारा आत्महत्या करनेवाले लोग" ऐसा नहीं होता।
बृहदारण्यकोपनिषद् (4/4/11) में कहा गया है: "अनन्दा नाम से लोका अन्धेन तमसा वृताः। ता" स्ते प्रेत्याभिगच्छन्त्यविद्वा, सोऽबुधोजनाः ॥” इस कथन से "असुर्या" के स्थान में "अनन्दा" है और “ये केचात्महनो जनाः" के स्थान में "अविद्वांसोऽबुधा जनाः" है। इससे भी फलित है कि “आत्महनो जनाः" शब्दों का अर्थ "अविद्वांसोऽबुधा जनाः" ही होता है । अपघात करनेवाले लोग नहीं।
इस मन्त्र के पूर्व के दो मन्त्रों का सार है-"किसी के भी धन के प्रति वासना न रख । मनुष्य से कर्म नहीं चिपकता। फल-वासना चिपकती है।" चौथे मन्त्र में आत्मतत्त्व क्या है, यह बताया गया है। इस तरह पूर्वापर प्रसंगों से भी "आत्महनो जना:" का अर्थ अज्ञान से आत्मा का हनन करनेवाले लोग-ऐसा ही होता है।
इससे स्पष्ट है कि उक्त मन्त्र में आत्मघातक की स्थिति का नहीं पर अज्ञानी की स्थिति का वर्णन हुआ है ।
(2) हारीत का अभिप्राय है: “जो आत्मा की-स्वयं की अथवा दूसरे की घात करता है वह अभिशस्त होता है ।"
19. न वेदवचनात् तात न लोकवचनादपि ।
मतिरुत्क्रमणीया ते प्रयागमरणं प्रति ॥ (83/83) 20. आत्मानं घनन्तीत्यात्महनः । के ते जनाः ये 5 विद्वांस...... अविद्यादोषेण
विद्यमानस्यात्मनस्तिरस्करणात्.. प्राकृताविद्वांसो आत्महन उच्यन्ते । 21. यो ह्यात्मानं परं वाभिमन्यतेऽभिशस्त एव भवति ।
(आपस्तम्बीयधर्मसूत्रम् 1/10/28 : 16-17) खं ३ अं. २-३
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