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________________ मनु अध्याय 6 श्लोक 31 की व्याख्या करते हुए कुल्लूक ने "न पुरायुषः स्वःकामी प्र ेयात्” — इस श्रुति को उद्धत कर लिखा है : 'स्वः कामी' शब्द का प्रयोग कर इस श्रुति वाक्य द्वारा अवैध मरण का ही निषेध किया गया है । शास्त्रविहित मरण नहीं 110 मनु (6/32 ) पर टीका करते हुए मेधातिथि ने भाष्य में लिखा है : शास्त्रविहित - विधि से मरने की इच्छा करने के साथ उक्त श्रुति का कोई विरोध नहीं है । अगर विरोध होता तो "न स्वःकामी प्रयादिति" इतने ही शब्द होते । विशेष अवस्था के सिवा मरण अनभिप्र ेत होने से ही, न पुरायुषः स्वःकामी प्रयात्-अर्थात् श्रायुष्य पूरी होने के पूर्व देहत्याग न करे, यह शब्द रचना रखी है । 17 इससे फलित होता है कि टीकाकारों के अनुसार उक्त श्रुतिवाक्य भी सर्वं आत्म-हत्याओं का निषेधक नहीं, केवल उन्हीं आत्म-हत्याओं का निषेधक है जो स्वच्छन्द, अवैध और अशास्त्रानुमोदित हों । 5 : श्रात्मघाती की पारभाविक अवस्था आत्मघातक की परभव में जो स्थिति होती है उसके वर्णन में हिन्दूशास्त्रों में जो उल्लेख प्राप्त है उनमें से मुख्य इस प्रकार हैं : (1) ईशावास्योपनिषद् के तीसरे मन्त्र में आत्मघाती की स्थिति का वर्णन करते हुए कहा है: जो कोई आत्मघातक जन हैं वे मरने के बाद गाढ़ अंधकार से आवृत आसुरी नाम से पुकारी जानेवाली योनि में जाते हैं । मूल मन्त्र इस प्रकार है : "असुर्या नाम ते लोका अन्धेन तमसावृताः । ताँ स् ते प्रत्याभिगच्छन्ति ये केचात्महनो जनाः ।" सीता के अपहरण के बाद जनक व्यथा से पीड़ित होकर कहते हैं : "खेद है कि बुढ़ापे से, दुःसह दुःख से तथा काय शोषक व्रतों से रस और धातु सुखा दिये जाने पर भी यह अवलंबन रहित निन्दित शरीर नहीं गिरता । ऋषि लोग मानते हैं कि अन्धकार से युक्त तथा सूर्य रहित लोक उनके लिए नियुक्त हैं जो आत्मघात करनेवाले हैं । अतः मुझ से आत्मघात भी नहीं बन पड़ता । 182 16. महाप्रस्थानाख्यं शास्त्र े विहितं चेदं मरणं तेन 'न पुरायुषः स्वः कामी प्रेयात् इति श्रत्यपि न विरोधः । यतः 'स्वःकामी' शब्द प्रयोगादवैधमरणमनया निषिध्यते न शास्त्रीयम् । 17. जरसा विशीर्णस्यानिष्टसन्दर्शनादिना वा विदिते प्रत्यासन्ने मृत्यौ मुमूर्षतो न श्रुतिविरोधः । एवं हि तत्र श्रूयते ' म पुरायुष' इति । अवस्थाविशेषे ह्यनभिप्रेते मरणे एतावदे वावक्ष्यत् 'न स्वःकामी प्रेयादिति" । 18. अन्धतामिस्रा ह्यसूर्या नाम ते लोकास्तेभ्यः प्रतिविधीयन्ते य आत्मघातिन इत्येवमृषयो मन्यन्ते । ( उत्तररामचरित अंक 4, श्लोक 3 के बाद अश ६८ Jain Education International For Private & Personal Use Only तुलसी प्रज्ञा www.jainelibrary.org
SR No.524510
Book TitleTulsi Prajna 1977 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya, Nathmal Tatia, Dayanand Bhargav
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1977
Total Pages198
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size9 MB
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