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________________ ___ इस प्रकार 'आयरिय' और 'पाइरिय' में रूपभेद है । • णमो लोए सव्वसाहूणं-णमो सव्वसाहूणं-अभयदेवसूरी के अनुसार भगवती सूत्र के मंगलवाक्य के रूप में उपलब्ध नमस्कार मन्त्र का पांचवां पद णमो सव्वसाहूणं' है । 'णमो लोए सव्वसाहूणं' का उन्होंने पाठान्तर के रूप में उल्लेख किया हैं—णमो लोए सव्वसाहूणं ति क्वचित्पाठः। इस पाठान्तर की व्याख्या में उहोंने बताया है कि 'सर्व' शब्द आंशिक सर्व के अर्थ में भी प्रयुक्त होता है । अत: परिपूर्ण सर्व का बोध कराने के लिए इस पाठान्तर में 'लोक' शब्द का प्रयोग किया गया है । 'लोक' और 'सर्व'-इनदोनों शब्दों के होने पर यह प्रश्न होना स्वाभाविक ही है और अभयदेव सूरी ने इसी का समाधान किया है । दशाश्रु तस्कंध के वृत्तिकार ब्रह्मऋषि ने भी णमो लोए सव्वसाहूणं ।' को पाठान्तर के रूप में व्याख्यात किया है। वे इसकी व्याख्या में अभयदेवसूरी का अक्षरशः अनुसरण करते हैं। हमने अभयदेवसूरी की वृत्ति के आधार पर भगवती सूत्र में णमो सव्वसाहूणं' को मूलपाठ और णमो लोए सव्वसाहूणं' को पाठान्तर स्वीकृत किया है। इसका यह अर्थ नहीं है कि णमो लोए सव्वसाहूणं' सर्वत्र पाठान्तर हैं । आवश्यक सूत्र में हमने णमो लोए सव्व साहूणं' को ही मूल पाठ माना है। हमने आगम-अनुसंधान की जो पद्धति निर्धारित की है, उसके अनुसार हम प्राचीनतम प्रति या चूणि, वृत्ति आदि व्याख्या में उपलब्ध पाठ को प्राथमिकता देते हैं। सबसे अधिक प्राथमिकता आगम में उपलब्ध पाठ को देते हैं। आगम के द्वारा आगम के पाठ संशोधन में सर्वाधिक प्रामाणिकता प्रतीत होती है । इस पद्धति के अनुसार हमें सर्वत्र णमो लोए सव्वसाहूणं' इसे मूलपाठ के रूप में स्वीकृत करना चाहिए था, किन्तु नमस्कार मन्त्र किस आगम का मूलपाठ है, इसका निर्णय अभी नहीं हो पाया है । यह जहां कहीं उपलब्ध है वहां ग्रन्थ के अवयव रूप में उपलब्ध नहीं है, मंगलवाक्य के रूप में उपलब्ध है। आवश्यक सूत्र के प्रारंभ में नमस्कार मन्त्र मिलता है। किन्तु वह आवश्यक का अंग नहीं है । आवश्यक के मूल अंग सामायिक, चतुर्विशस्तव आदि हैं । इस दृष्टि से भगवती सूत्र में नमस्कार मंत्र का जो प्राचीनरूप इमें मिला वही हमने मूलरूप में स्वीकृत किया । अभयदेवसूरी की व्याख्या से प्राचीन या समकालीन कोई भी प्रति प्राप्त नहीं हैं । यह वृत्ति ही सबसे प्राचीन है। इसलिए वृत्तिकार द्वारा निर्दिष्ट 1. भगवती वृत्ति, पत्र 4. 2. भगवती वृत्ति, पत्र 4 : तत्र सर्वशब्दस्य देशसर्वतायामपि दर्शनादपरिशेषसर्वतोपदर्शनार्थ मुच्यते 'लोके' मनुष्यलोके न तु गच्छादी ये सर्धसाधवस्तेभ्यो नमः । 3. हस्तलिखित वृत्ति, पत्र 4. खं. ३ अं. २-३ ५६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524510
Book TitleTulsi Prajna 1977 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya, Nathmal Tatia, Dayanand Bhargav
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1977
Total Pages198
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size9 MB
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