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अरुहंताणं-यह पाठ-भेद भगवती सूत्र की वृत्ति में व्याख्यात है। वृत्तिकार अभयदेवसूरी ने इसका अर्थ अपुनर्भव किया है। जैसे बीज के अत्यन्त दग्ध होने पर उससे अकुर नहीं फूटता, वैसे ही कर्म-बीज के अत्यन्त दग्ध हो जाने पर भवांकुर नहीं फूटता।
आवश्यक नियुक्ति और धवला में 'अरुहंत' पाठ व्याख्यात नहीं है। इससे प्रतीत होता है कि यह पाठान्तर उनके उत्तरकाल में बना है। ऐसी अनुश्रु ति भी है कि यह पाठान्तर तमिल और कन्नड़ भाषा के प्रभाव से हुआ है। किन्तु इसकी पुष्टि के लिए कोई स्पष्ट प्रमाण प्राप्त नहीं है।
'अरुह' शब्द का प्रयोग आचार्य कुन्दकुन्द के साहित्य में मिलता है। उन्होंने 'अरुहंत' और 'अरहंत' का एक ही अर्थ में प्रयोग किया है। वे दक्षिण के थे, इसलिए 'अरहंत' के अर्थ में 'अरुह' का प्रयोग दक्षिण के उच्चारण से प्रभावित है, इस उपपत्ति की पुष्टि होती है । बोधप्राभृत में उन्होंने 'अर्हत्' का वर्णन किया है। उसमें 28, 29, 30, 32-इन चार गाथाओं में 'अरहंत' का प्रयोग है और 31, 34, 36, 39, 41 इन पांच गाथानों में 'अरुह' का प्रयोग है।
आचार्य हेमचन्द्र ने उपलब्ध प्रयोगों के आधार पर अर्हत् शब्द के तीन रूप सिद्ध किए हैं—अरुहो, अरहो, अरिहो, अरुहन्तो, अरहन्तो, अरिहन्तो ।
डॉ. पिशेल ने अरहा, अरिहा, अरुहा और अलिहन्त का विभिन्न भाषाओं की दृष्टि से अध्ययन प्रस्तुत किया है।
अरहा, अरहन्त-अर्द्धमागधी अरिहा -शौरसेनी अरुहा -जैन महाराष्ट्री अलिहंताणं -मागधी
पायरियाणं -प्राइरियाणं आगम साहित्य में यकार के स्थान में इकार के प्रयोग मिलते हैंवयगुत्त-वइगुत्त; वयर-वइर ।
1. भगवती वृत्ति, पत्र 3 अरुहंताणमित्यपि पाठान्तरं, तत्र अरोहद्भ्य: अनुपजायमानेभ्यः क्षीणकर्मबीजत्वात्, आह च--
'दग्धे बीजे यथाऽत्यन्तं प्रादुर्भवति नांकुर:
कर्मबीजे तथा दग्धे न रोहति भवांकुरः ॥ 2. हेम शब्दानुशासन, 81 21 111 : उच्चाहति । 3. कम्पेरेटिव ग्रामर प्रॉफ दी प्राकृत लेंगवेजेज, पिशेल ss 140 पृष्ठ 113
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तुलमी प्रज्ञा
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