________________
भगवती सूत्र के प्रारंभ में मंगल वाक्य है, अन्य किसी अंग-सूत्र का प्रारम्भ मंगलवाक्य से नहीं हुआ है । सहज ही प्रश्न होता है कि उपलब्ध एक ही अंग में मंगल वाक्य का विन्यास क्यों ? कालांतर में होने की अधिक संभावना है । जब यह धारणा रूढ़ हो गई कि में मंगल - वाक्य होना चाहिए तब ये मंगल- वाक्य लिखे गए ।
ग्यारह अंगों में से केवल मंगल - वाक्य के प्रक्षिप्त आदि, मध्य और अन्त
भगवती सूत्र के पन्द्रहवें शतक के प्रारंभ में भी मंगल वाक्य उपलब्ध होता है— 'नमो सुदेवयाए भगवईए' । अभयदेव सूरी ने इसकी व्याख्या नहीं की है । इससे लगता है कि प्रारंभ के मंगल-वाक्य, लिपिकारों या अन्य किसी आचार्य ने, वृत्ति की रचना से पूर्व जोड़ दिए थे और मध्यवर्ती मंगल वृत्ति की रचना के बाद जुड़ा । पन्द्रहवें अध्ययन का पाठ विघ्नकारक माना जाता था इसलिए इस अध्ययन के साथ मंगलवाक्य जोड़ा गया, यह बहुत संभव है । मंगलवाक्य के प्रक्षिप्त होने की बात अन्य आगमों से भी पुष्ट होती है । 1
दशाश्रुतस्कंध की वृत्ति में मंगलवाक्य के रूप में नमस्कार मंत्र व्याख्यात है, किन्तु चूर्णि में वह व्याख्यात नहीं है । इससे स्पष्ट है कि चूर्णि के रचनाकाल में वह प्रतियों में उपलब्ध नहीं था और वृत्ति की रचना से पूर्व वह उनमें जुड़ गया था । कल्पसूत्र (पर्युषणाकल्प) दशाश्रुतस्कंध का आठवाँ अध्ययन है । उसके प्रारंभ में भी नमस्कार मंत्र लिखा हुआ मिलता है । आगम के महान् अनुसंधाता मुनि पुण्य विजयजी ने इसे प्रक्षिप्त माना है । उनके अनुसार प्राचीनतम ताड़पत्रीय प्रतियों में यह उपलब्ध नहीं है और वृत्ति में भी व्याख्यात नहीं है । यह अष्टम अध्ययन होने के कारण इसमें मध्य मंगल भी नहीं हो सकता । इसलिए यह प्रक्षिप्त है ।
प्रज्ञापना सूत्र के प्रारंभ में भी नमस्कार मन्त्र लिखा हुआ है, किन्तु हरिभद्र सूरी और मलयगिरि- इन दोनों व्याख्याकारों के द्वारा यह व्याख्यात नहीं है ।
प्रज्ञापना के रचनाकार श्री श्यामार्य ने मंगल- वाक्य पूर्वक रचना का प्रारंभ
1. विशेषावश्यकभाष्य, गाथा, 13-14
तं मंगलमाईए मज्भे पज्जतए य सत्थस्स । पढमं सत्थस्साविग्धपारगमणाए निद्दिट्ठ ॥ तस्सेवाविग्घत्थं मज्झिमयं अंतिमं च तस्सेव । अवच्छित्तिनिमित्तं सिस्सप सिस्साइवंसस्स || 2. कल्पसूत्र ( मुनि पुण्य विजयजी द्वारा संपादित ) पृष्ठ 3 : कल्पसूत्रारम्भे नैतद् नमस्कारसूत्ररूप सूत्रं भूम्ना प्राचीनतमेषु ताड़पत्रीयादर्शेषु दृश्यते, नापि टीकाकृदादिभिरेतदादृतं व्याख्यातं वा, तथा चास्य कल्पसूत्रस्य दशाश्रुतस्कंधसूत्रस्याष्टमाध्ययनत्वान्न मध्ये मंगलरूपत्वेनापि एतत्सूत्र संगतमिति प्रक्षिप्तमेवैतत् सूत्रमिति ।
वं. ३ अ. २-३
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
५५
www.jainelibrary.org