SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 62
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ किया है । इससे ज्ञात होता है कि ई. पू. पहली शताब्दी के आसपास आगम-रचना से पूर्व मंगल वाक्य लिखने की पद्धति प्रचलित हो गई। प्रज्ञापनाकार का मंगल- वाक्य उनके द्वारा रचित हैं । इसे निबद्ध - मंगल कहा जाता है । दूसरों के द्वारा रचे हुए मंगल - वाक्य उद्धृत करने को 'अनिबद्ध - मंगल' कहा जाता है । 2 प्रति लेखकों ने अपने प्रति-लेखन में कहीं-कहीं अनिबद्ध - मंगल का प्रयोग किया है । इसीलिए मंगल - वाक्य लिखने की परंपरा का सही समय खोज निकालना कुछ जटिल हो गया । नमस्कार - महामन्त्र के पाठ-भेद नमस्कार मंत्र का बहु प्रचलित पाठ यह है - णमो अरहंताणं, णमो सिद्धाणं णमो आयरियाणं, णमो उवज्झायाणं, णमो लोए सव्वसाहूणं । प्राचीन ग्रन्थों में इसके अनेक पदों एवं वाक्यों के पाठान्तर मिलते हैं• णमो नमो अरहंताणं - अरिहंताणं, अरुहंताणं । • आयरियाणं - आइरियाणं । • णमो लोए सव्वसाहूणं - णमो सव्व साहूणं । • नमो अरहंतानं, नमो सव - सिधानं । • णमो नमो - प्राकृत में आदि में 'न' का 'ण' विकल्प से होता है । इसलिए 'नमो', 'णमो' - ये दोनों रूप मिलते हैं । • अरहंताणं, अरिहंताणं - प्राकृत में 'अहं' धातु के दो रूप बनते हैंअरहर, अरिहइ । 'अरहंताणं' और 'अरिहंताणं' ये दोनों 'अहं' धातु के शतृ प्रत्ययान्त रूप हैं | 'अरहंत' और 'अरिहंत' – इन दोनों में कोई अर्थ भेद नहीं है । व्याख्याकारों ने 'अरिहंत' शब्द को संस्कृत की दृष्टि से देखकर उसमें अर्थभेद किया है। अरि + हंत - शत्रु का हनन करने वाला । यह अर्थ शब्द साम्य के कारण किया गया है । आवश्यक नियुक्ति में यह अर्थ उपलब्ध है । ग्रर्हता का अर्थ इसके बाद किया गया 1. प्रज्ञापना, पद 1, गाथा 1 : ववगयजरमरणभए, सिद्ध े अभिवंदिऊण तिविहेणं । वंदामि जिनवरिदं, तेलोक्कगुरुं महावीरं ॥ 2. धवला, षट्खंडागम 1-1-1 पृष्ठ 42 : तं च मंगलं दुविहं णिबद्ध मणिबद्धमिदि । तत्थ णिबद्ध णाम, जो सुत्तस्सादीए सुत्तकत्तारेण कयदेववाणमोक्कारो तं निबद्धमंगलं । जो सुत्तस्सादीए सुत्तकत्तारेण ण णिबद्ध देवदाणमोक्कारो, तमणिबद्धमंगलं । ५६ 3. आवश्यक नियुक्ति, गाथा 919, 920 : इंदिविसयकसाये परीसहे वेयणाओ उवसग्गे । एए अरिणो हंता, अरिहंता तेण वुच्चति । अट्ठविवि अ कम्मं, अरिभूअं होइ सव्वजीवाणं । तं कम्ममरिहंता, अरिहंता तेण वच्च॑ति ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only तुलसी प्रज्ञा www.jainelibrary.org
SR No.524510
Book TitleTulsi Prajna 1977 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya, Nathmal Tatia, Dayanand Bhargav
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1977
Total Pages198
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy