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________________ ये चार अनुबन्ध बतलाए जाते थे। आगम युग में इन चारों की परम्परा प्रचलित नहीं थी। आगमकार अपने अभिधेय के साथ ही अपने आगम का प्रारंभ करते थे। आगम स्वयं मंगल हैं। उनके लिए फिर मंगल-वाक्य आवश्यक नहीं होता । जयधवला में लिखा है कि आगम में मंगल-वाक्य का नियम नहीं है, क्योंकि परम आगम में चित्त को केन्द्रित करने से नियमतः मंगल का फल उपलब्ध हो जाता है। इस विशेष अर्थ को ज्ञापित करने के लिए भट्टारक गुणधर ने ग्रन्थ के प्रारम्भ में मंगल नहीं किया । आचारांग सूत्र के प्रारंभ में मंगल-वाक्य उपलब्ध नहीं है। उसका प्रारम्भ'सुयं मे आउसं! तेण भगवया एवमक्खायं'-इस वाक्य से होता है । । सूत्रकृतांग सूत्र का प्रारंभ 'बुज्झज्झ तिउज्जा '- इस उपदेश-वाक्य से होता है। स्थानांग और समवायांग सूत्र के आदि-वाक्य 'सुयं मे आउसं ! तेण भगवता एवमक्खातं' हैं। भगवती सूत्र के प्रारम्भ में तीन मंगल-वाक्य मिलते हैं1. नमो प्ररहताणं, नमो सिद्धाणं, नमो आयरियाणं, - नमो उवज्झायाणं, नमो सव्वसाहूणं 2. नमो वंभीए लिवीए । 3. नमो सुयस्स। ज्ञाताधर्मकथा, उपासकदशा, अन्तकृदशा, अनुत्तरोपपातिकदशा-इन सब सूत्रों का प्रारम्भ 'तेण कालेणं तेण समएणं'–से होता है। प्रश्नव्याकरण सूत्र का आदि वाक्य है-'जम्बू' । विपाकसूत्र का आदि-वाक्य वही तेणं कालेणं तेणं समएणं'- है। जैन आगमों में द्वादशांगी स्वतः प्रमाण है । यह गणधरों द्वारा रचित मानी जाती है। इसका बारहवां अंग उपलब्ध नहीं है । उपलब्ध ग्यारह अंगों में, केवल 1. कसाय पाहुड़, भाग 1, गाथा 1, पृष्ठ 9 : एत्थ पुण णियमो णत्थि, पर___ मागमुवजोगम्मि णियमेण मंगलफलोवलंभादो । 2. वही, पृष्ठ 9 : एदस्स अत्थविसेस्स जाणावणट्ठ गुणहरभडारएण गंथस्सा दीए ण मंगलं कयं । तुलसी प्रज्ञा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524510
Book TitleTulsi Prajna 1977 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya, Nathmal Tatia, Dayanand Bhargav
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1977
Total Pages198
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size9 MB
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