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वे सब अनेकान्त के विषय बनते हैं ।।
5. क्या सापेक्ष की भी सप्तभंगी हो सकती है ? यदि हो सकती है तो निरपेक्ष सत्य की स्वीकृति सहज ही हो जाती है।
__ वस्तु कथंचित् सापेक्ष है और वह कथंचित् निरपेक्ष है। ये दोनों भंग मान्य हो सकते हैं । अर्थ-पर्याय या स्वाभाविक पर्याय की दृष्टि से वस्तु निरपेक्ष होती है। अर्थ-पर्याय की दृष्टि से आकाश आकाश है। आपेक्षिक और वैभाविक पर्यायों की दृष्टि से वस्तु सापेक्ष होती है । सापेक्ष दृष्टि से आकाश, घटाकाश, पटाकाश आदि अनेक रूपों में प्राप्त होता है । जितने व्यंजन-पर्याय हैं वे सब सापेक्ष ही होते हैं । इस विश्व-व्यवस्था में कोई एक तत्त्व ऐसा नहीं है जिसे हम निरपेक्ष कह सके। किन्तु प्रत्येक द्रव्य निरपेक्ष और सापेक्ष की समन्विति है। निरपेक्षता और सापेक्षता को सर्वथा पृथक् नहीं किया जा सकता। उनका पार्थक्य भी अपेक्षा से ही होता हैअर्थ-पर्याय की दृष्टि से निरपेक्षता और व्यंजन-पर्याय की दृष्टि से सापेक्षता है।
1. सप्तभंगीतरंगिणी, पृष्ठ 79 :
एवमयं स्याज्जीव इति मूलभंगद्वयम् । तत्रोपयोगात्मना जीव:, प्रमेयत्वाद्यास्मनाऽजीव इति तदर्थः । तदुक्तं भट्टाकलंकदेवै : -
प्रमेयत्वादिभिर्धर्मेरचिदात्मा चिदात्मकः ।।
ज्ञानदर्शनतस्तस्माच्चेतनाऽचेतनात्मकः ॥ इति ।। अजीवत्वं च प्रकृतेऽजीववृत्तिप्रमेयत्वादि धर्मवत्त्वम्, जीवत्वं च ज्ञानदर्शनादिमत्त्वमिति द्रष्टव्यम्।
जैन न्याय का विकास-ले० मुनि नथमल, प्रकाशक-जैन विद्या अनुशीलन केन्द्र, राजस्थान विश्वविद्यालय, जयपुर पृ० 73-80 से साभार उद्धत ।
खं. ३ अ. २-३
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