________________
4. स्यात् अवक्तव्यः-कथंचित् अवक्तव्य है। 5. स्यात् एकान्तश्च अवक्तव्यश्च-कथंचित् एकान्त है और अवक्तव्य है । 6. स्यात् अनेकान्तश्च अवक्तव्यश्च- कथंचित् अनेकान्त है और अवक्तव्य है।
7. स्यात् एकान्तश्च अनेकान्तश्च अवक्तव्यश्च-कथंचित् एकान्त है, अनेकांत है और अव्यक्त है ।
हमारा एकान्त से विरोध नहीं है । उस एकान्त को हम अस्वीकार करते हैं जो मिथ्या है-दूसरे नय के मत का खंडन करता है । इस आधार पर एकान्त के दो भेद होते हैं -सम्यग् एकान्त और मिथ्या एकान्त । सम्यग् एकान्त नय है और मिथ्या एकान्त दुर्नय । अनेकान्त से हमारा कोई गठबन्धन नहीं है। हम उस अनेकान्त को भी स्वीकार नहीं करते जो एक वस्तु में प्रत्यक्ष आदि प्रमाणों से विरुद्ध अनेक धर्मों की कल्पना करता है इस आधार पर अनेकान्त के भी दो भेद होते हैं-सम्यग् अनेकान्त और मिथ्या अनेकान्त । सम्यग् अनेकांत प्रमाण है और मिथ्या अनेकान्त प्रमाणाभास है।
सम्यग् अनेकान्त सार्वत्रिक होता है। आचार्य अकलंक ने जीव द्रव्य में भी सप्तभंगी की योजना की है
स्यात् जीव:-कथंचित् जीव है। स्यात् अजीव:-कथचित् जीव नहीं है।
चैतन्य-व्यापार की दृष्टि से जीव चेतनात्मक है। प्रमेयत्व आदि धर्मों की अपेक्षा से जीव चेतनात्मक नहीं है। इस प्रकार प्रमाण से अविरुद्ध जितने भी धर्म हैं,
1. तत्त्वार्थवार्तिक 116 :
अनेकान्तोऽपि द्विविधः-सम्यगनेकान्तो मिथ्यानेकान्त इति । तत्र सम्यगेकान्तो हेतुविशेषसामर्थ्यापेक्षः प्रमाणः प्ररूपितार्थेकदेशादेशः। एकात्मावधारणेन अन्याशेषनिराकरणप्रवणप्रणिधिमिथ्र्यकान्तः। एकत्र सप्रतिपक्षानेकधर्मस्वरूपनिरूपणो युक्त्यागमाभ्यामविरुद्धः सम्यगनेकान्तः । तदतत्स्वभाववस्तुशून्यं परिकल्पितानेकात्माकं केवलं वागविज्ञानं मिथ्याऽनेकान्तः तत्र सम्यगेकान्तो नय इत्युच्यते । सम्यगनेकान्तः प्रमाणं । नयार्पणादेकान्तो भवति एकनिश्चयप्रवणत्वात्, प्रमाणार्पणादनेकान्तो भवति अनेक निश्चयाधिकरणत्वात् ।
तुलसी प्रज्ञा
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org