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________________ फल का रंग कपि के होटों जैसा लाल होता है | 1 6. तिलकमंजरी कथा में मलयसुन्दरी द्वारा आत्महत्या करने के उद्देश्य से किपाकवृक्ष के फल को खा लेने के प्रसंग में किपाकवृक्षका अत्यन्त विस्तृत वर्णन इस प्रकार किया है : “ मलय सुन्दरी ने निकट ही देखे हुए एक किपाकवृक्ष के फल को, जो अत्यन्त कोमल, स्पर्श, गन्ध तथा वर्ण से युक्त होते हुए एवं अत्यधिक स्वादिष्ट होते हुए भी विषयसुख के समान परिणाम में अतीव दारुण था, खा लिया । वह वृक्ष स्वभाव से ही काले पर्वत की कालिमा को आकृष्ट करने वाला था, ग्रतः ऐसा प्रतीत होता था मानो शिव के द्वारा पीने से अवशिष्ट समुद्र मंथन से निकली कालकूट विष की राशि हो । घने पत्तों के समूह के कारण ऐसा लगता था मानो सूर्य की किरणें भी भय से उसमें प्रविष्ट नहीं हो रही थीं । हवा के वेग से सभी शाखाओं के व्याप्त अपने विष से स्वयं अपना भी विह्वलित होना प्रकट कर रहा था । उसका मूल- प्रदेश इधर-उधर मरे हुए, मूच्छित हुए, हिलते हुए, सांस लेते हुए तथा निश्चेष्ट पक्षियों से, जिनकी चोंच में चबाने से बचे हुए फल के टुकड़े थे, लगातार व्याप्त हो रहा था । " मरण के हिलने से वह समस्त अंगों में 7. हमने ऊपर देखा है कि कारस्कर और किम्पाक पर्यावाची माने गए हैं । शालिग्रामनिघण्टुभूषणम् के अनुसार कारस्कर वृक्ष मध्यम आकार के होते हैं । 1. प्रसन्नराघवम् 7-27 : अग्रेसरी रघुपते : परिणद्वपाककिम्पाकपाटलमुखी कपिवीरसेना । निःशेषमापिबति राक्षसवीरचक्रं प्रातः प्रभेव तपनस्य तमिस्रजालम् ॥ धनपाल तिलकमंजरी पृ० 334-35 : ... संनिधावेव दृष्टस्य स्वभावाकृष्टकज्जलकूटकालिम्नः कालकूटविषराशेवि मनसं निहितशिपिविष्टकवलितावशिष्टस्य विटपहारदूरावजितप्रान्तस्य निरन्तरतया पर्णसंहतीनामर्ककिरणैरपि मरण भीतैरिव परिहृताभ्यन्तरप्रवेशस्य मारूताघूर्णितनिखिलशाखानिवहमात्मानमपि सर्वा गव्यापिना निजविषेण विह्वलीकृतमिव प्रकाशयतश्चञ्चुपुटनिविष्टचवितावशिष्टफलशकलैरितस्ततो मृर्तश्च मूच्छितैश्च स्पन्दमानैश्च श्वसद्भिश्च निश्चेतनैर्वनशकुन्तै निरन्तराक्रान्त- मूलदेशावकाशस्य किपाकनाम्नो विद्रमस्य हृद्यस्पर्शगन्धवर्णमतिशयस्वादुरस- परिपाकं विपाकदारुणतया विषयसौख्यमिव मूर्तिमत्तया परिणतमादाय पाणिना दक्षिणेन क्षीणपुण्या फलमेकमभ्यवहृतवती । खं. ३ अ. २-३ 2. Jain Education International For Private & Personal Use Only ३७ www.jainelibrary.org
SR No.524510
Book TitleTulsi Prajna 1977 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya, Nathmal Tatia, Dayanand Bhargav
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1977
Total Pages198
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size9 MB
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