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मोक्ष के विषय में आचार्य विद्यानन्द ने तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक में बतलाया है। कि सम्पूर्ण कर्मों से छूट जाने पर जीव को जो स्वात्म लाभ होता है वह मोक्ष है । जीव के अभाव का नाम अथवा किन्हीं गुणों के प्रभाव का नाम मोक्ष नहीं है, जैसा कि कुछ दार्शनिकों ने बतलाया है ।।
अब प्रश्न यह है कि कर्ममुक्त होने पर जीव की स्थिति कहां होती है ? इसका उत्तर यह है कि कर्म मुक्त जीव तुरन्त ही ऊपर की ओर लोक के अन्त तक गमन करता है और वहाँ पहुंच कर सिद्ध शिला में विराजमान हो जाता है।। मुक्ति मनुष्यगति से ही होती है, अन्य किसी गति से नहीं। मनुष्यों का सद्भाव ढाईद्वीप (जम्बद्वीप, धातुकी खण्डद्वीप और आधा पुष्करवर द्वीप) और उनके बीच में आये हुए दो समुद्रों (लवणोदधि और कालोदधि) में पाया जाता है। इस समस्त क्षेत्र का विस्तार 45 लाख योजन है । मुक्त जीवों का लोक (सिद्धशिला) भी मनुष्य लोक के ठीक ऊपर है इसलिए मुक्त होते ही यह जीव ठीक सीध में ऊपर चला जाता है । मुक्तजीव की यह लोकान्त प्राणी गति क्यों होती है इस विषय में सूत्रकार ने चार हेतु दिये हैं । और उनकी पुष्टि में चार उदाहरण भी दिये हैं।' 1. पूर्व के प्रयोग से, 2. संग का अभाव होने से, 3. बन्धन टूटने से और 4 उर्ध्वगमन करने का स्वभाव होने से यह जीव उर्ध्वगमन करता है, घुमाये गए कुम्भकार के चक्र के समान, लेप से मुक्त हुई तू बड़ी के समान, एरण्ड के बीज के समान और अग्नि की शिखा के समान । पूर्व प्रयोग का अर्थ है पूर्व संस्कार से प्राप्त हुआ वेग । जिस प्रकार कुंभकार के द्वारा जोर से घुमाये जाने के बाद हाथ हटा लेने पर भी चक्र पूर्व प्रयोग के कारण कुछ देर तक घूमता रहता है, उसी प्रकार संसारी आत्मा ने मोक्ष की प्राप्ति के लिए पूर्व में अनेक बार जो प्रयत्न किये थे उन्हीं के कारण उसका उर्ध्वगमन होता है । संगरहित अथवा कर्मभाररहित होने से जीव उर्ध्वगमन करता है । जैसे तुंबड़ी पर मिट्टी का लेप कर देने से भार के कारण वह नीचे चली जाती है, किन्तु मिट्टी के लेप के दूर होते ही वह पानी के ऊपर आ जाती है, वैसे ही कर्मभार से दबा हुआ आत्मा संसार में परिभ्रमण करता है, किन्तु कर्मभार के दूर होते ही वह ऊपर चला जाता है । बन्धन के टूट जाने से जीव ऊर्ध्वगमन करता है । जैसे फली के अन्दर स्थित एरण्ड बीज ऊपर के छिलके के हटते ही छिटक कर ऊपर को जाता है वैसे ही कर्मबन्धन से मुक्त होते ही यह जीव ऊपर चला जाता है । ऊर्ध्वगमन करने के स्वभाव के कारण भी मुक्त जीव ऊपर की
1. निःशेषकर्मनिर्मोक्ष : स्वात्मलाभोऽभिधीयते । मोक्षो जीवस्य नाभावो न गुणाभावमात्रकम् ।।
-तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 4 पृ० 58 2. पूर्वप्रयोगादसङ्गत्वाद् बन्धच्छेदात्तथागतिपरिणामाच्च-तत्त्वार्थसूत्र 1016 3. पाविद्धकुलालचक्रवद व्यपगतलेपालाबुवदेरण्डबीजवदग्निशिखावच्च ।
-तत्त्वार्थसूत्र 10116
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तुलसी प्रज्ञा
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