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अोर गमन करता है । जैसे वायु के अभाव में अग्नि की शिखा स्वभाव से ऊपर का ओर जाती है, वैसे ही मुक्त जीव कर्म के दूर होते ही स्वभाव से ऊर्ध्वगमन करता है।
अब प्रश्न यह है कि मुक्त जीव लोक के अन्त में अर्थात् सिद्धशिला में पहुंच कर क्यों रुक जाता है, उसके आगे अलोकाकाश में क्यों नहीं चला जाता ? इसका उत्तर प्राचार्य ने यह दिया है कि जीव और पुद्गल के गमन करने में धर्मद्रव्य निमित्त कारण होता है । अलोकाकाश में केवल आकाश ही है, धर्म आदि अन्य द्रव्य नहीं हैं । अतः धर्म द्रव्य के अभाव के कारण मुक्त जीव का गमन ऊपर लोक के अन्त तक ही होता है, उसके आगे नहीं।
मोक्ष के विषय में जान लेने के पश्चात् यह जिज्ञासा होना स्वाभाविक है कि मोक्ष का मार्ग क्या है जिस पर चल कर अपने लक्ष्य (मोक्ष) को प्राप्त किया जा सकता है। इस विषय में मोक्षशास्त्र के प्रथम सूत्र में बतलाया गया है कि सम्यग्दर्शन, सम्यग् ज्ञान और सम्यक् चारित्र ये तीनों मिल कर मोक्ष के साधन हैं । दर्शन, ज्ञान और चरित्र ये तीनों सम्यक् भी होते हैं और मिथ्या भी । अतः मिथ्या की निवृत्ति के लिए दर्शन आदि तीनों के साथ सम्यक् विशेषण लगाना आवश्यक है। मिथ्यादर्शनादि संसार के कारण होते हैं और सम्यक् दर्शनादि मोक्ष के कारण होते हैं। दर्शन मोहनीय कर्म के उपशम, क्षय या क्ष योपशमरूप अन्तरङ्गकारण से जो तत्त्वार्थश्रद्धान होता है उसे सम्यग्दर्शन कहते हैं । इस अन्तरंग कारण की पूर्णता कहीं निसर्ग (स्वभाव) से होती है और कहीं अधिगम (परोपदेश) से होती है । इस प्रकार सम्यक्दर्शन निसर्गज और अधिगमज के भेद से दो प्रकार का होता है । दर्शन मोहनीय कर्म के उपशमादि की अपेक्षा से प्रीपशमिक, क्षायोपशमिक और क्षायिक के भेद से सम्यग्दर्शन तीन प्रकार का भी होता है। प्रमाण और नयों के द्वारा जीवादि सात तत्त्वों का संशय, विपर्यय और अनध्यवसाय से रहित जो यथार्थज्ञान होता है उसे सम्यग्ज्ञान कहते हैं। मति, श्रुत, अवधि, मन: पर्यय और केवल के भेद से सम्यग्ज्ञान पाँच प्रकार का होता है। संसार के कारणभूत रागद्वेषादि की निवृत्ति के लिए ज्ञानवान् पुरुष का शरीर
और वचन की बाह्य क्रियाओं से तथा प्राभ्यन्तर मानस क्रिया से विरत होने का नाम सम्यक्चारित्र है । सम्यक्चारित्र के 5 भेद हैं-सामायिक, क्षेदोपस्थापना, परिहारविशुद्धि, सूक्ष्म-साम्पराय और यथाख्यात ।
मोक्ष के उक्त तीन साधन क्रम से पूर्ण होते हैं । सर्वप्रथम सम्यग्दर्शन पूर्ण
1. धर्मास्तिकायाभावात् । तत्त्वार्थ सूत्र 1018 2. प्रणिधानविशेषाहित-द्वविध्यजनित-व्यापारं तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनम् ।
-तत्त्वार्थवार्तिक 3. नयप्रमाण-विकल्पपूर्वको जीवाद्यर्थ याथात्म्यावगम: सम्यग्ज्ञानम् ।-तत्त्वार्थवातिक 4. संसारकारणविनिवृत्तिप्रत्यागूर्णस्य ज्ञानवतो बाह्याभ्यन्तर-क्रियाविशेषोपरमः
सम्यक्चारित्रम् । -तत्त्वार्थवार्तिक
खं. ३ अं. २-३
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