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________________ विकास करने का समान अधिकार प्राप्त है और वह कर्मनाश के अनन्तर अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तसुख और अनन्तवीर्य आदि गुणों की प्राप्ति करके सर्वज्ञ सर्वदर्शी, भगवान्, परमात्मा इत्यादि नामों से अभिहित किया जाता है । यहाँ ईश्वर पद का अधिकार किसी एक आत्मा में निहित नहीं है किन्तु प्रत्येक आतमा परमात्मा बनने की अधिकारी है और समय आने पर वह वैसा बन भी जाता है। जैनदर्शन की यह सब से बड़ी विशेषता है। जैनदर्शन में मोक्षतत्त्व जैनदर्शन में जीव, अजीव, पास्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष ये सात तत्त्व बतलाये गये हैं। इन सात तत्त्वों के विवेचन के लिए आचार्य उमास्वाति ने तत्त्वार्थसूत्र नामक ग्रन्थ की रचना की जिसका मुख्य विषय मोक्ष और मोक्ष का मार्ग हैं । इसी लिए तत्त्वार्थसूत्र का दूसरा नाम मोक्ष शास्त्र भी है। इसमें 10 अध्याय हैं। इसके प्रथम अध्याय का प्रथम सूत्र मोक्ष मार्ग का प्रतिपादन करता है और दसवें अध्याय में मोक्ष का स्वरूप बतलाया गया है। अर्थात् इसका प्रारम्भ मोक्षमार्ग से हो कर पर्यवसान मोक्ष तत्त्व में होता है । मोक्ष की प्राप्ति के लिए जीव आदि 6 तत्त्वों का ज्ञान आवश्यक है। इसीलिए प्रारम्भ के 9 अध्यायों में जीवादि 6 तत्त्वों का विवेचन करने के बाद ही दसवें अध्याय में मोक्ष तत्त्व का विवेचन किया गया है, जो इस प्रकार है : __ज्ञानावरणादि सम्पूर्ण कर्मों के प्रात्यन्तिक क्षय हो जाने का नाम मोक्ष है और यह क्षय बन्ध के हेतुओं का अभाव हो जाने से तथा निर्जरा से होता है। बन्ध के हेतु 5 हैं3-मिथ्यादर्शन, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग । जब सम्यग्दर्शन आदि के द्वारा मिथ्यादर्शन प्रादि का अभाव कर दिया जाता है तब मिथ्यादर्शन आदि के द्वारा आने वाले कर्मों का आगमन रुक जाता है । इसी का नाम संवर है । संवर के द्वारा नवीन कर्मों का बन्ध रुक जाता है। तब पूर्व में संचित कर्मों की सविपाक या अविपाक निर्जरा की जा सकती है । इस प्रकार निर्जरा द्वारा संचित कर्मों का पूर्ण क्षय हो जाता है । यह स्मरणीय है कि सम्पूर्ण कर्मों का क्षय एक साथ नहीं होता है किंतु इस की प्रक्रिया चतुर्थ गुणस्थान से प्रारम्भ होती है और समाप्ति चौदहवें गुणस्थान में होती है । यही कारण है कि चौदहवें गुणस्थान के अन्तिम समय में यह जीव सर्वथा मुक्त हो जाता है। 1. सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः ।-तत्त्वार्थसूत्र 111 2. बन्धहेत्वभावनिर्जराभ्यां कृत्स्नकर्मविप्रमोक्षो मोक्ष:-तत्त्वार्थसूत्र 1012 3. मिथ्यादर्शनाविरतिप्रमादकषाययोगा बन्धहेतवः-तत्त्वार्थसूत्र 811 खं. ३ अं. २-३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524510
Book TitleTulsi Prajna 1977 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya, Nathmal Tatia, Dayanand Bhargav
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1977
Total Pages198
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size9 MB
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