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रहता है।
कर्म के विषय में महाकवि तुलसीदास ने रामचरितमानस में कहा हैकर्मप्रधान विश्व करि राखा । जो जस करहि सो तस फल चाखा ।।
अतः इस में कोई सन्देह नहीं है कि विश्व में कर्म की प्रधानता है और यह भी निश्चय है कि जो प्राणी जैसा कर्म करता है उसको वैसा सी फल मिलता है।
कर्म से मुक्ति
यह सब के अनुभवों में आता है कि जीव कर्मों से बन्धा हुआ है और कर्मबद्ध होने के कारण ही वह मनुष्य, तिर्यञ्च आदि चारों गतियों में जन्म लेकर जन्म, जरा, मरण, क्ष धा, तृषादि के अनेक दु:ख भोगा करता है । तब प्रश्न यह है कि इस कर्म से मुक्ति का कोई उपाय है या नहीं? यह पहले ही बतलाया जा चुका है कि यद्यपि कर्मबन्धन अनादिकाल से चला आ रहा है किन्तु वह सान्त है। जैनदर्शन के अनुसार संवर और निर्जरा के द्वारा कर्म का क्षय संभव है । संवर का अर्थ है कर्म आगमन को रोक देना । जब हम संवर के द्वारा भविष्य में बंधने वाले कर्मों का आना रोक देंगे और जो कर्म पहले से आत्मा में विद्यमान हैं उनकी निर्जरा कर देंगे तो ऐसी स्थिति में कर्म का सर्वथा नाश हो जाने से यह जीव सर्वथा शुद्ध अवस्था को प्राप्त कर लेता है । इसी अवस्था का नाम मुक्ति या मोक्ष है । ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय इन चार घातिया कर्मों का नाश हो जाने पर यह आत्मा अर्हन्त अवस्था को प्राप्त कर लेता है और केवली, सर्वज्ञ. परमात्मा आदि शब्दों से व्यवहृत होता है । कैवल्य प्राप्ति के अनन्तर वेदनीय, नाम, गोत्र और आयु इन चार अघातिया कर्मों का क्षय हो जाने पर आत्मा की सर्वथा शुद्ध अवस्था हो जाती है और इस अवस्था को प्राप्त आत्मा को सिद्ध परमात्मा कहते हैं । जो जीव संसार से सर्वथा मुक्त हो जाता है, वह संसार में फिर कभी लौट कर नहीं आता है, क्योंकि संसार में उसके पुनः आने का कोई कारण शेष नहीं रहता है। यही कारण है कि जैनदर्शन ने मुक्त जीव का संसार में पुन: अवतरण या अवतार नहीं माना है।
___ यह स्मरणीय है कि जैनदर्शन की दष्टि से अध्यात्म के क्षेत्र में सब जीवों को समानरूप से पूर्ण अधिकार प्राप्त है। अर्थात् प्रत्येक जीव को अपना सर्वोच्च
1. संकल्पवशो मूढः वस्त्विष्टानिष्टतां नयेत् ।
रागद्वेषौ ततस्ताभ्यां बन्ध दुर्मोचमश्नुते ॥-महापुराण 24121
तुलसी प्रज्ञा
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