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होकर चौरासी लाख योनियों में भ्रमण करता हुआ दुःखों के भार को ढोया करता है। इस विषय में सिद्धांत चक्रवर्ती नेमिचन्द्राचार्य ने कितना सुन्दर उदाहरण दिया है कि "जिस प्रकार बोझा ढोने वाला व्यक्ति कांवड़ को लेकर बोझा ढोता है, उसी प्रकार यह संसारी जीव शरीर रूपी कावड़ द्वारा कर्म भार को ढोता है।"
कर्मबन्ध को सादि मानने का अर्थ यह होगा कि आत्मा पहले कर्म-बन्धन से सर्वथा मुक्त और अनन्तज्ञानादिगुणों से युक्त था। ऐसी स्थिति में शुद्ध प्रात्मा कर्मबन्धन को स्वीकार क्यों करेगा ? अत्यन्त शुद्ध आत्मा अत्यन्त घृणित शरीर को कैसे धारण कर सकता है ? शुद्ध आत्मा में पुनः अशुद्धि का कारण क्या है ? शुद्ध आत्मा को पुन: अशुद्ध बनने का कोई कारण प्रतीत नहीं होता है। इससे यही निष्कर्ष निकलता है कि आत्मा अनादिकाल से कर्मबन्धनयुक्त है। यद्यपि जीव के साथ कर्मसम्बन्ध अनादि है फिर भी किसी दृष्टि से वह सादि भी है। जिस प्रकार वृक्ष और बीज का सम्बन्ध सन्तान की अपेक्षा से अनादि है और पर्याय की अपेक्षा से सादि है, उसी प्रकार कर्मसम्बन्ध भी सन्तान की अपेक्षा से अनादि है और पर्याय की अपेक्षा से सादि है। कर्मबन्ध अनादि होते हुए भी सान्त है । क्योंकि ऐसा कोई नियम नहीं है कि जो अनादि है उसे अनन्त भी होना चाहिए। विरोधी कारणों का समागम होने पर अनादि सम्बन्ध भी समाप्त हो जाता है । इस विषय में एक दृष्टान्त दिया गया है कि जिस प्रकार बीज के जल जाने पर अंकुर उत्पन्न नहीं होता है उसी प्रकार कर्म बीज के भस्म हो जाने पर भवांकुर उत्पन्न नहीं होता हैं। .
कर्मबन्ध के कारण कषाय और योग हैं । इन दोनों कारणों के सद्भाव में ही कर्म का बन्ध होता है, इनके अभाव में नहीं । बन्ध के विषय में आचार्य उमास्वाति ने बतलाया है कि जीव कषाय सहित होने के कारण कर्म के योग्य पुद्गलों को ग्रहण करता है। इसी का नाम बन्ध है । शुद्ध आत्मा में कर्म का बन्ध नहीं होता है, किन्तु कषायवान् आत्मा ही कर्म का बन्ध करता है। कषाय सहित आत्मा प्रत्येक समय कर्म का बन्ध करता रहता है । रागद्वेषरूप भाव कर्म का निमित्त पाकर द्रव्य कर्म आत्मा से बंधता है और द्रव्य कर्म के निमित्त से आत्मा में रागद्वेषरूप भाव कर्म की उत्पत्ति होती है । इस विषय में जिनसेनाचार्य ने महापुराण में कहा है कि यह अज्ञानी जीव इष्ट और अनिष्ट संकल्प द्वारा वस्तु में प्रिय और अप्रिय की कल्पना करता है। इससे राग-द्वेष उत्पन्न होता है, और इस रागद्वेष से द्रव्य कर्म का बन्धन होता है। इस प्रकार राग-द्वेष के निमित्त से संसार का चक्र चलता
1. जह भारवहो पुरिसो वहइ भरं गेहिऊण कावडियं ।। ___एमेव वहइ जीवो कम्मभरं कायकावडियं ।।--गोमट्टसार जीवकांड 102 2. दग्धे बीजे यथात्यन्तं प्रादुर्भवति नांकुरः।
कर्मबीजे तथा दग्धे न रोहति भवांकुरः।-तत्त्वार्थसार, 7 3. सकषायत्वाज्जीवः कर्मणो योग्यान् पुद्गलानादत्ते स बन्धः।-तत्त्वार्थसूत्र 812
खं.३ अं. २-३
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