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________________ दुहा ॐ पंच परमेष्टि नमि, भिक्षु भारीमाल । नृपति इदु प्रणमी रचूं, 'भगवइ जोड़' विशाल ।। 1 ।। इक सय अड़ती शतक सहु, बड़ा शतक इकताल । उगणीसो पणवीस वर, निमल उद्देशा न्हाल ॥ 2 ॥ इकतीसमा शतक ना, अष्टवीस उद्देश । मतांतरे गुणतीस कहै, जाण बहुश्रुत रेस ।। 3 ।। ढाल १ ली (सोई रे सयाणा अवसर साध, अवसर साधिनै स्वाम आराधे) १ : जय-कुजर पंचमै अंग 'भगवती' पवरं, द्वितीय नाम प्राख्यो तसु अवरं । सरस विवाहपण्णत्ति' सारं, जय-कुंजर गज जिम जयकारं । 1 ॥ जय-कुंजर गज जिम जयवंतो, समय भगवती सषर सोहंतो। ललित मनोहर जे पद केरी, पद्धति रचना पंक्ति सुहेरी । पंडितजन-मन-रंजन प्यारो, प्राज्ञ रिझावणहार प्रचारो ॥ 2 ॥ अव्यय फुन उपसर्ग निपातं, ए त्रिहुंनोज स्वरूप सुजातं । प्रादिक उपसर्ग चादि निपातं, प्रादिक चादिक अव्यय ख्यातं ॥ 3 ॥ हस्ति पक्षे एम सल हिय, उपसर्ग तेह उपद्रव कहीये । तेह निपात मिट्य पिण वारु, अव्यय अक्षय रूप सुचारु ।। 4 । धन उदार रव ए (सूत्र छै, हस्ति पक्षे हिव कहियै छ । घन ते मेघ तणी पर सारं, ध्वनि गंभीर शब्द सुखकारं ॥ 5 ॥ ए सूत्र विभक्ति लिंग करि युक्तं, हस्ति पक्षे तसु इम उक्तं । पुरुष चिन्ह रचना करि सहितं, एह अर्थ पंडित जन ग्रहितं ॥ 6 ॥ 1. वात्तिक प्र, परा, अप, सम, अनु, अव, निस, निर्, दुस,दुर्, अभि, वि, अधि, सु, इत्यादिक प्र आदि देइनै उपसर्ग कहिये । च, वा, अह, एवं, नूनं, स्वस्ति अस्ति इत्यादिक आदि देइन निपात कहिये । अनै वलि 'प्र' प्रमुख उपसर्ग, वलि 'च' प्रमुख निपात-ए विहुं नै अव्यय संजा कहिये । खं. ३ अं. २-३ For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.524510
Book TitleTulsi Prajna 1977 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya, Nathmal Tatia, Dayanand Bhargav
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1977
Total Pages198
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size9 MB
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