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(9) महाभारत में सतीप्रथा का साक्षात् स्वरूप सामने आता है । वह प्रथा उस काल में सम्पूर्णत: पल्लवित दिखाई देती है। महाभारत में कहा है: साध्वी स्त्री यदि पहले मर गई हो तो परलोक में जाकर वह पति की प्रतीक्षा करती है और यदि पहले पति मर गया हो तो सती स्त्री पीछे से उसका अनुगमन करती है । 155
सती होने के कुछ प्रसंग भी महाभारत में उपलब्ध हैं :
(क) पाण्डु के स्वर्गवास के बाद ऋषि पाण्डु के पुत्रों पाण्डु और माद्री के शरीरों की अस्थियों को लेकर पाण्डु की राजधानी कुरूजांगल देश की राजधानी हस्तिनापुर में पहुंचे। वहां भीष्मजी से बोले : राजा पाण्डु उत्तम पुत्रों की उपलब्धि करके आज से सतरह दिन पहले पितृलोकवासी हो गए। जब वे चिता पर सुलाये गए और उन्हें अग्नि के मुख में होम दिया गया, उस समय देवी माद्री अपने जीवन का मोह छोड़कर उसी अग्नि में प्रविष्ट हो गयी। 157
(ख) पारधी के चले जाने पर शोक से कृश होली अपने पति का स्मरण कर रोती हुई बोली:" अपने पति के समान स्त्रियों के लिए कोई नाथ नहीं और पति के समान कोई दूसरा सुख नहीं इस प्रकार अत्यन्त दुख के कारण वह जाज्वल्यमान अग्नि में कूद पड़ी। तब उसे दिव्यरूप में पति के दर्शन हुए।' 158
(ग) कृष्ण की कुछ माताओं के अन्वारोहण का वर्णन इस प्रकार है : "अर्जुन ने एक बहुमूल्य विमान सजाकर उस पर वसुदेवजी के शव को सुलाया और मनुष्यों के कन्धों पर उठवा कर वे उसे नगर से बाहर ले गए । वीर वसुदेवजी की पत्नियां वस्त्र और आभूषणों से सजधज कर पति की अरथी के पीछेपीछे जा रही थीं। वसुदेवजी को अपने जीवन काल में जो स्थान विशेष प्रिय था, वहीं लेजाकर अर्जुन आदि ने उनका पितृमेधकर्म किया। 159 चिता की प्रज्वलित अग्नि में सोये हुए वीर शूरपुत्र वसुदेवजी के साथ उनकी चारों पत्नियां-देवकी, भद्रा, रोहिणी तथा मदिरा भी चिता पर जा बैठीं और उन्हीं के साथ भस्म हो पतिलोक को प्राप्त
हुई।" 160
156. प्रथमं संस्थिता भार्या पति प्रेत्य प्रतीक्षते ।
पूर्व-मृतं च भर्तारं पश्चात् साध्व्यनुगच्छति ॥ (1/74/4611) 157. तं चितागतमाज्ञाय वैश्वानरमुखे हुतम् ।।
प्रविष्टा पावकं माद्री हित्वा जीवितमात्मन: ।। (1/125/30) सा गता सह तेनैव पतिलोकमनुव्रता।
तस्यास्तस्य च यत् कायं क्रियतां तदनन्तरम् ।। (1/125/31 ॥) 158. महाभारत : (12/148/9-10) 159. महाभारत : मौसलपर्व : (7/19-24) 160. महाभारत : मौसलपर्व : (7/24)
तं चिताग्निगतं वीरं शूरपुत्र वरांगना :। ततोऽन्वारूरूहुः पत्न्यश्चतस्र : पतिलोकगाः ॥
खं.३ अं. २-३
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